By पं. अमिताभ शर्मा
वेद केवल धार्मिक ग्रन्थ नहीं हैं बल्कि कई विद्याओं के स्त्रोत हैं। ज्योतिष शास्त्र उन्हीं में से एक विद्या है।
भारतीय परंपरा में वेदों को ज्ञान का मूल स्रोत माना गया है। ये केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि विज्ञान की प्रारंभिक पुस्तकों में गिने जाते हैं। इनमें चिकित्सा, भौतिकी, रसायन शास्त्र और खगोलशास्त्र जैसे विषयों का गहन वर्णन मिलता है। भारतीय ज्योतिष विद्या की जड़ें भी इन्हीं वेदों में मौजूद हैं। चूंकि इसका आधार वेद हैं, इसलिए इसे 'वैदिक ज्योतिष' कहा जाता है।
वैदिक ज्योतिष, जिसे पारंपरिक रूप से "ज्योतिष शास्त्र" कहा जाता है, भारत की एक प्राचीन विद्या है जिसकी जड़ें लगभग 5000 साल पुरानी मानी जाती हैं। यह प्रणाली व्यक्ति और ब्रह्मांड के बीच गहरे संबंध को समझने का माध्यम है और यह इस विचार पर आधारित है कि ग्रहों और नक्षत्रों की स्थिति हमारे जीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।
यह ज्योतिषीय विधा 'नक्षत्र-आधारित राशि चक्र' पर आधारित होती है, जिसमें जन्म के समय ग्रहों और तारों की स्थिति को विशेष महत्व दिया जाता है। वैदिक ज्योतिष की जड़ें हिंदू धर्म की वैदिक परंपराओं में गहराई से जुड़ी हैं और इसकी अनेक मान्यताएँ प्राचीन ग्रंथों से प्रेरित हैं।
इस विद्या की विशेषता यह है कि यह केवल व्यक्ति के स्वभाव या व्यक्तित्व की जानकारी ही नहीं देती, बल्कि जीवन में आने वाली कठिनाइयों से निपटने और आत्मिक विकास के रास्ते सुझाने में भी सहायक होती है। समय के साथ यह शास्त्र आधुनिक परिवेश के अनुरूप ढलता गया और आज भी यह लोगों को उनके जीवन के हर मोड़ पर सार्थक दिशा और आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करता है।
भारतीय ज्योतिष का आधार वेद हैं - यह सिर्फ एक सांस्कृतिक विश्वास नहीं है, बल्कि इसके पीछे ठोस ग्रंथीय और ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। नारद पुराण के अनुसार, ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान ब्रह्मा से नारद को मिला था। ऐसी मान्यता है कि भृगु ऋषि ने ज्योतिष विद्या द्वारा भविष्य कथन करने की शुरुआत की।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-इन सभी वेदों में नक्षत्रों, ग्रहों, काल-गणना और ब्रह्मांडीय घटनाओं का वर्णन मिलता है। उदाहरण के तौर पर:
वेदों की संरचना में छह वेदांग होते हैं, जिनमें से एक है ज्योतिष। इसका मुख्य उद्देश्य यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठानों के सही समय निर्धारण के लिए खगोलीय गणनाएँ करना था। इससे यह स्पष्ट होता है कि ज्योतिष विद्या वैदिक परंपरा का ही हिस्सा रही है।
भारतीय ज्योतिष के सबसे प्रतिष्ठित ग्रंथ "बृहत्पाराशर होरा शास्त्र" में स्वयं महर्षि पराशर कहते हैं - "वेदेभ्यश्च समुद्धृत्य ब्रह्मा प्रोवाच विस्तृतम्" (ज्योतिष का ज्ञान वेदों से उद्धृत कर ब्रह्मा ने विस्तार से बताया।) इससे यह संकेत मिलता है कि ज्योतिष शास्त्र की उत्पत्ति वैदिक ज्ञान से हुई है।
प्राचीन समय में यज्ञ, विवाह, ग्रहप्रवेश, नामकरण आदि वैदिक अनुष्ठानों में मुहूर्त निर्धारण, ग्रह स्थिति और नक्षत्रों की गणना ज्योतिष के माध्यम से ही की जाती थी। यह दर्शाता है कि यह विद्या वेदों की संरचना और क्रियावली का अनिवार्य हिस्सा थी।
चित्राणि साकं दिवि रोचनानि सरीसृपाणि भुवने जवानि। तुर्मिशं सुमतिमिच्छमानो अहानि गीर्भिः सपर्यामि नाकम्॥ (अथर्व वेद 19.7.1)
अर्थ: "द्युलोक -सौरमंडल में चमकते हुए विशिष्ट गुण वाले अनेक नक्षत्र हैं, जो साथ मिलकर अत्यंत तीव्र गति से टेढ़े-मेढ़े चलते हैं। सुमति की इच्छा करता हुआ मैं प्रतिदिन उनको पूजता हूं, जिससे मुझे सुख की प्राप्ति हो। "इस प्रकार इस मन्त्र में नक्षत्रों को सुख तथा सुमति देने में समर्थ माना गया है। यह सुमति मनुष्यों को नक्षत्रों की पूजा से प्राप्त होती है। यह मनुष्यों पर नक्षत्रों का प्रभाव हुआ, जिसे ज्योतिष शास्त्र भी मानता है।
यानि नक्षत्राणि दिव्यन्तरिक्षे अप्सु भूमौ यानि नगेषु दिक्षु। प्रकल्पयंश्चन्द्रमा यान्येति सर्वाणि ममैतानि शिवानि सन्तु॥ (अथर्व वेद 19.8.1)
अर्थ: "जिन नक्षत्रों को चन्द्रमा समर्थ करता हुआ चलता है; वे सब नक्षत्र मेरे लिए आकाश में, अन्तरिक्ष में, जल में, पृथ्वी पर, पर्वतों पर और सब दिशाओं में सुखदायी हों।"
अब सवाल उठता है कि चंद्रमा किन-किन नक्षत्रों में अपनी यात्रा करता है और किन नक्षत्रों को ऊर्जा देता है? वेदों के अनुसार, ऐसे 28 नक्षत्र हैं जिनका उल्लेख खास तौर पर किया गया है। अथर्ववेद के 19वें काण्ड के 7वें सूक्त में, मंत्र संख्या 2 से 5 तक इन सभी नक्षत्रों के नाम दिए गए हैं। ये वही नाम हैं-जैसे अश्विनी, भरणी आदि-जो आज भी ज्योतिष ग्रंथों में मिलते हैं। नामों और उनके क्रम में जो पूर्ण समानता है, वह ये साफ संकेत देती है कि आधुनिक ज्योतिष की जड़ें बहुत गहराई से वेदों में जुड़ी हुई हैं। इसका मतलब यह है कि ज्योतिष कोई नया या कल्पनाशील विचार नहीं, बल्कि वैदिक काल से चली आ रही एक स्थापित और प्रमाणित विद्या है, जिसे ऋषियों ने खगोलीय नियमों और अनुभवों के आधार पर विकसित किया था।
अष्टाविंशानि शिवानि शग्मानि सह योगं भजन्तु मे। योगं प्र पद्ये क्षेमं च क्षेमं प्र पो योगं च नमोऽहोरात्राभ्यामस्तु।। (अथर्व वेद 19.8.2) अर्थ: "अट्ठाईस नक्षत्र मुझे वह सब प्रदान करें, जो कल्याणकारी और सुखदायक है। मुझे प्राप्ति-सामर्थ्य और रक्षा सामर्थ्य प्रदान करें। दूसरे शब्दों में पाने के सामर्थ्य के साथ-साथ रक्षा के सामर्थ्य को पाऊं और रक्षा के सामर्थ्य के साथ ही पाने के सामर्थ्य को भी मैं पाऊं। दोनों अहोरात्र (दिवस और रात्रि) को नमस्कार हो।"
इस मंत्र में योग और क्षेम की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की है। साधारणतया जो वस्तु मिली नहीं है, उसको जुटाने का नाम 'योग' है। जो वस्तु मिल गयी है, उसकी रक्षा करना ही 'क्षेम' है। नक्षत्रों से इनको देने की प्रार्थना से स्पष्ट है कि नक्षत्र प्रसन्न होकर यह दे सकते हैं। इस प्रकार इस मंत्र का भी ज्योतिष से सम्बन्ध है।
जानते हैं इस मंत्र के बारे में कुछ और भी बातें।
इस मंत्र में प्रयुक्त 'अहोरात्र' शब्द का विशेष ज्योतिषीय महत्व है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र (अध्याय 3.2) में कहा गया है: अहोरात्राद्यंतलोपाद्धोरेति प्रोच्यते बुधैः। तस्य हि ज्ञानमात्रेण जातकर्मफलं वदेत्॥
अर्थात् - 'अहोरात्र' शब्द के आरंभ और अंत के वर्ण हटाकर 'होरा' शब्द बनता है। इसी होरा (लग्न) के ज्ञान से किसी जातक का शुभ या अशुभ फल बताया जाता है।
ज्योतिष शास्त्र में आकाशीय पिंडों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है - नक्षत्र और ग्रह। बृहत्पाराशर होराशास्त्र (अध्याय 3.4-5) में स्पष्ट किया गया है: तेजःपुञ्ज नु वीक्ष्यन्ते गगने रजनीषु ये। नक्षत्रसंज्ञकास्ते तु न क्षरन्तीति निश्चलाः॥ विपुलाकारवन्तोऽन्ये गतिमन्तो ग्रहाः किल। स्वगत्या भानि गृह्णन्ति यतोऽतस्ते ग्रहाभिधाः॥ अर्थात् - जो आकाश में रात को स्थिर रूप में चमकते हैं, वे नक्षत्र हैं। जो पिंड गतिशील हैं और इन स्थिर तारों को पार करते हैं, वे ग्रह कहलाते हैं।
नक्षत्रों की तरह, ग्रहों से भी शांतिदायक प्रभाव की कामना की गई है। अथर्ववेद के 19वें कांड के नवम सूक्त में दो मंत्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं: (i) सातवाँ मंत्र: शं नो दिविचरा ग्रहाः
अर्थात्, "आकाश में विचरण करने वाले सारे ग्रह हमारे लिए शांतिदायक हों।"
(ii) दसवाँ मंत्र: शं नो ग्रहाश्चान्द्रमसाः शमादित्यश्च राहुणा । शं नो मृत्युधूमकेतुः शं रुद्रास्तिग्मतेजसः।।
अर्थात्, चंद्रमा जैसे सभी ग्रह, सूर्य और राहु, मृत्यु और धूमकेतु (केतु), तथा तेजस्वी रुद्र - सभी हमारे लिए शांति लाएं। यहाँ 'चन्द्रमसाः' से आशय उन ग्रहों से है जो चंद्रमा की भाँति सूर्य की परिक्रमा करते हैं - अर्थात् मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि। सूर्य स्वयं किसी की परिक्रमा नहीं करता, इसलिए वह अलग श्रेणी में रखा गया है। राहु और केतु प्रत्यक्ष ग्रह नहीं हैं, फिर भी वेदों और ज्योतिष में इन्हें छाया ग्रह माना गया है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर ज्योतिष में जिन नवग्रहों की गणना की जाती है, वे हैं -** सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु।** कुछ भाष्यकार 'चन्द्रमसाः' का अर्थ 'चंद्रमा के नक्षत्र' भी मानते हैं, परंतु इस संदर्भ में यह तर्क संगत नहीं माना गया है।
उक्त मंत्र में जिन 'मृत्यु' और 'धूम' का उल्लेख है, उन्हें महर्षि पराशर ने 'अप्रकाशग्रह' कहा है - जो दिखाई नहीं देते, पर अशुभ प्रभाव डालते हैं। कुछ परंपराओं में गुलिक को ही 'मृत्यु' ग्रह माना जाता है। यह स्पष्ट करता है कि इन अदृश्य शक्तियों का भी मानवीय जीवन पर असर पड़ता है।
अंत में, बृहत्पाराशर होराशास्त्र (उत्तर खंड, अध्याय 20.3) में उल्लेख है: "वेदेभ्यश्च समुद्धृत्य ब्रह्मा प्रोवाच विस्तृतम्।" **अर्थात् **- ब्रह्मा जी ने वेदों से ही ज्योतिष शास्त्र को विस्तारपूर्वक प्रकट किया। इससे यह सिद्ध होता है कि ज्योतिष शास्त्र वेदों से निकला एक दिव्य और प्राचीन ज्ञान है, न कि केवल बाद की कल्पना।
ज्योतिष का मूल वेदों में गहराई से निहित है। नक्षत्रों और ग्रहों के प्रभाव, उनकी प्रार्थना, योग-क्षेम की धारणा और होरा शास्त्र-all इन सबका समृद्ध वर्णन वैदिक मंत्रों में मिलता है। यह दर्शाता है कि ज्योतिष केवल भविष्यवाणी नहीं, बल्कि वेद-समन्वित एक वैज्ञानिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण है।
अनुभव: 32
इनसे पूछें: जीवन, करियर, स्वास्थ्य
इनके क्लाइंट: छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
इस लेख को परिवार और मित्रों के साथ साझा करें