By पं. अमिताभ शर्मा
महाभारतकालीन युद्ध, नवग्रह, ग्रहण और संस्कृति का संपूर्ण विश्लेषण
महाभारत का अध्ययन करते समय सबसे अचंभित करने वाला पहलू यह है कि महर्षि वेदव्यास ने न केवल मानवीय संघर्ष और धर्म की जटिलताओं को प्रस्तुत किया बल्कि आकाशीय घटनाओं का भी अत्यंत सूक्ष्म वर्णन दिया है। यह महाकाव्य प्राचीन भारत की खगोलीय समझ का अद्वितीय दस्तावेज है, जिसमें ग्रहों की स्थिति, ग्रहण, उल्काओं और नक्षत्रों के संदर्भ इतनी सटीकता से दिए गए हैं कि आधुनिक खगोलविद् इनके आधार पर युद्ध की तिथि निर्धारित करने का प्रयास कर रहे हैं।
वैदिक परंपरा में आकाश और पृथ्वी के बीच गहरा संबंध माना जाता था। ऋषि-मुनियों का मानना था कि जो कुछ भी आकाश में घटित होता है, उसका प्रभाव धरती पर अवश्य पड़ता है। यही कारण है कि महाभारत में युद्ध से पूर्व और युद्ध के दौरान आकाशीय संकेतों का विस्तृत उल्लेख मिलता है।
भारतीय ज्योतिष में नवग्रह प्रणाली का विकास एक दीर्घकालीन प्रक्रिया थी। प्रारंभ में केवल सप्त ग्रह (सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि) की चर्चा मिलती है, परंतु बाद में राहु और केतु को भी सम्मिलित कर नवग्रह प्रणाली बनी।
ऋग्वेद में स्वर्भानु नामक असुर का उल्लेख मिलता है जो सूर्य को अंधकार से ढक देता था। यह प्राचीन भारतीयों की सूर्यग्रहण की समझ का प्रतीक है। अथर्ववेद में राहु का स्पष्ट उल्लेख चंद्रमा को पकड़ने वाले के रूप में मिलता है।
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के समय राहु नामक असुर ने छल से अमृत पान किया, जिसके कारण विष्णु भगवान ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। सिर को राहु और पूंछ को केतु कहा गया। खगोलीय दृष्टि से राहु और केतु चंद्र की कक्षा और सूर्य के पथ के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं।
ग्रह | संस्कृत नाम | खगोलीय वर्गीकरण | मुख्य प्रभाव क्षेत्र | शुभाशुभ फल | संबंधित देवता | प्रतीकात्मक अर्थ |
---|---|---|---|---|---|---|
सूर्य | सूर्य, आदित्य | तारा | आत्मा, व्यक्तित्व, पिता | नेतृत्व, अधिकार, स्वास्थ्य | सूर्य देव | जीवनशक्ति, प्रकाश, सत्य |
चंद्र | चंद्र, सोम | उपग्रह | मन, माता, भावनाएं | कल्पना, संवेदना, लोकप्रियता | चंद्र देव | शीतलता, करुणा, मातृत्व |
मंगल | मंगल, अंगारक | ग्रह | शक्ति, युद्ध, भूमि | साहस, क्रोध, संघर्ष | कार्तिकेय | वीरता, रक्षा, पुरुषार्थ |
बुध | बुध, सौम्य | ग्रह | बुद्धि, संवाद, व्यापार | शिक्षा, कुशलता, व्यापारिक बुद्धि | विष्णु | ज्ञान, संचार, व्यावहारिकता |
बृहस्पति | बृहस्पति, गुरु | ग्रह | ज्ञान, धर्म, गुरु | आध्यात्मिकता, न्याय, मार्गदर्शन | बृहस्पति | शिक्षा, नैतिकता, परंपरा |
शुक्र | शुक्र, उशना | ग्रह | प्रेम, कला, वैभव | सुख, सुंदरता, कलात्मकता | लक्ष्मी | सौंदर्य, समृद्धि, रचनात्मकता |
शनि | शनि, शनैश्चर | ग्रह | कर्म, न्याय, अनुशासन | कष्ट, धैर्य, सबक | शिव | समय, न्याय, कर्म फल |
राहु | राहु, स्वर्भानु | छाया ग्रह | माया, भ्रम, अचानक परिवर्तन | भ्रष्टाचार, विदेशी प्रभाव, नवाचार | शिव (रुद्र रूप) | भौतिकता, इच्छा, भ्रम |
केतु | केतु, सिकंध | छाया ग्रह | मोक्ष, त्याग, आध्यात्म | वैराग्य, अज्ञात भय, अंतर्दर्शन | गणेश | मुक्ति, आध्यात्मिकता, त्याग |
महाभारत में युद्ध से पूर्व के खगोलीय वर्णन मुख्यतः तीन स्थानों पर मिलते हैं : उद्योग पर्व में कर्ण द्वारा कृष्ण को दिए गए संकेत, भीष्म पर्व में व्यास द्वारा धृतराष्ट्र को बताए गए चिह्न और कर्ण पर्व में कर्ण की मृत्यु के समय के आकाशीय परिवर्तन।
जब कृष्ण की शांति-यात्रा असफल हो जाती है तब कर्ण अपने भयावह पूर्वानुमान प्रकट करता है :
"निस्संदेह हे कृष्ण, पांडवों और कौरवों के बीच एक भयानक युद्ध होने वाला है जो पृथ्वी को रक्त से भिगो देगा... वह भयंकर ग्रह शनि रोहिणी नक्षत्र को पीड़ा दे रहा है... मंगल ज्येष्ठा की ओर बढ़ते हुए अनुराधा के समीप पहुंच रहा है... चंद्रमा पर धब्बे ने अपना स्थान बदल दिया है और राहु सूर्य के निकट आ गया है। सूर्य के चारों ओर काली वृत्त है। प्रातःकाल और संध्या दोनों समय भयानक संकेत दिख रहे हैं..."
आधुनिक खगोलविदों के अनुसार, कर्ण के इस वर्णन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं :
व्यास जी ने धृतराष्ट्र को और भी विस्तृत आकाशीय चित्र प्रस्तुत किया :
"पृथ्वी कांप रही है, राहु सूर्य के पास जा रहा है। केतु चित्रा को पार कर गया है। उल्काएं पुष्य में प्रज्वलित हो रही हैं। मंगल मग्हा की ओर मुड़ा है, बृहस्पति श्रवण में है। शनि भागा के निकट है, शुक्र पूर्वभाद्रपद में उदित हो रहा है... ज्वलंत केतु ज्येष्ठा पर आक्रमण कर रहा है। चंद्र और सूर्य दोनों रोहिणी को कष्ट दे रहे हैं। राहु चित्रा और स्वाति के बीच स्थित है..."
सबसे असाधारण तथ्य : व्यास ने उल्लेख किया कि एक ही चांद्र मास में सूर्यग्रहण और चांद्रग्रहण दोनों हुए थे, जो खगोलीय दृष्टि से अत्यंत दुर्लभ घटना है।
जब कर्ण अर्जुन के हाथों रणभूमि में गिरता है, महाभारत वर्णन करता है : "पर्वत काँप उठे, जीवों को पीड़ा हुई। बृहस्पति (गुरु), रोहिणी को दुख देने लगा, चंद्रमा या सूर्य-सा रंग हो गया। दिशाएँ प्रज्वलित हुईं। आकाश अंधकारमय हो गया, धरती हिल उठी।"
बृहस्पति का स्थान बदलना स्वयं एक गूढ़ मोड़ के पूर्व संकेत था, जिसने कर्ण के युद्धांत को ब्रह्मांडीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण घोषित किया।
महाभारत खगोल-संकेत के रूप में कैलेंडर का भी पालन करती है। जब भीष्म, बाणशय्या पर, मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं, तो सूर्य दक्षिणायन में होता है। वे कहते हैं, "मैं तभी शरीर त्यागूँगा, जब सूर्य उत्तरायण में जायेगा, मकर राशि में प्रवेश करेगा।" इसका सीधा संकेत है, युद्ध के समय सूर्य मकर की ओर चल रहा था और कालक्रम, ऋतु, तथा आत्मिक मुक्ति का जोड़ा प्रकट करता था।
उपरोक्त अठारह संकेतों के आधार पर, आधुनिक खगोलविद संभावित ग्रह-स्थिति का मानचित्र बनाते हैं। हर ग्रह को न केवल राशि-नक्षत्र से बल्कि उसके 'अर्थ' के अनुरूप भी स्थानांकित किया गया है।
व्यास के वर्णन के अनुसार सूर्य रोहिणी को प्रभावित कर रहा था और मकर की ओर बढ़ रहा था। यह दर्शाता है कि सूर्य वृश्चिक राशि में था, जो वृषभ राशि के रोहिणी नक्षत्र के विपरीत स्थित है।
सभी प्रमाण बताते हैं कि चंद्रमा सूर्य के साथ था, अर्थात अमावस्या की स्थिति में वृश्चिक राशि में था।
कर्ण ने कहा कि मंगल ज्येष्ठा (वृश्चिक) की ओर जा रहा है जबकि व्यास ने बताया कि यह मग्हा (सिंह) की ओर भी बढ़ रहा है। यह केवल वक्री गति में ही संभव है। संभवतः मंगल कन्या या सिंह राशि में वक्री गति में था।
व्यास के अनुसार शनि विशाखा नक्षत्र के समीप स्थिर था और रोहिणी को कष्ट दे रहा था। यह दर्शाता है कि शनि तुला राशि में था और वक्री गति में होने के कारण आसपास की राशियों में गतिमान था।
बृहस्पति की गति सबसे महत्वपूर्ण है। प्रारंभ में यह श्रवण (मकर) नक्षत्र में था परंतु युद्ध के अंत तक वृश्चिक राशि में पहुंचकर रोहिणी को कष्ट देने लगा। यह परिवर्तन कर्ण की मृत्यु के समय हुआ था।
शुक्र और बुध का प्रत्यक्ष विवरण कम मिलता है, परंतु शुक्र कभी भी सूर्य से दो राशियों से अधिक दूर नहीं हो सकता और बुध 42 अंश से अधिक दूर नहीं हो सकता। सूर्य वृश्चिक में होने के कारण, शुक्र कन्या से मकर तक कहीं भी हो सकता है और बुध तुला, वृश्चिक या धनु में हो सकता था।
ग्रह | स्थिति | खगोलीय स्पष्टीकरण |
---|---|---|
सूर्य | वृश्चिक राशि | रोहिणी के विपरीत, मकर की ओर अग्रसर |
चंद्र | वृश्चिक राशि | सूर्य के साथ, अमावस्या स्थिति |
मंगल | कन्या/सिंह राशि | वक्री गति, ज्येष्ठा और मग्हा के बीच |
बुध | तुला/वृश्चिक/धनु | सूर्य के 42 अंश के भीतर |
बृहस्पति | तुला से वृश्चिक | युद्ध के दौरान संक्रमण |
शुक्र | कन्या से मकर | सूर्य के दो राशि के भीतर |
शनि | तुला राशि | विशाखा में स्थिर, वक्री गति |
राहु | वृश्चिक राशि | सूर्य के साथ, सूर्यग्रहण |
केतु | वृषभ राशि | चित्रा के पार, चांद्रग्रहण |
व्यास द्वारा वर्णित सबसे असाधारण घटना यह थी कि एक ही चांद्र मास में सूर्यग्रहण और चांद्रग्रहण दोनों हुए थे। आधुनिक खगोल विज्ञान के अनुसार यह अत्यंत दुर्लभ घटना है जो हजारों वर्षों में एक बार होती है।
व्यास ने उल्लेख किया कि चांद्र पक्ष की अवधि घट गई थी और तीन चांद्र कलाएं एक ही पक्ष में दिखाई दे रही थीं। यह खगोलीय असामान्यता युद्ध की भयावहता को दर्शाती थी।
महाभारत में वर्णित अन्य प्राकृतिक संकेत :
रोहिणी नक्षत्र राजसत्ता और कृषि का प्रतीक है। शनि का इस पर प्रभाव राजवंश के विनाश और अकाल का संकेत माना जाता था। प्राचीन ज्योतिष के अनुसार, जब शनि रोहिणी को प्रभावित करता है तो राजा और प्रजा दोनों कष्ट में पड़ जाते हैं।
मग्हा नक्षत्र पूर्वजों और राज सिंहासन का प्रतीक है जबकि ज्येष्ठा शक्ति और युद्ध का। मंगल की वक्री गति इन दोनों नक्षत्रों के बीच राजवंश में आंतरिक कलह और युद्ध की भविष्यवाणी करती थी।
बृहस्पति को गुरु और धर्म का कारक माना जाता है। इसका श्रवण से वृश्चिक में जाना धार्मिक मूल्यों में परिवर्तन और न्यायव्यवस्था के पतन का संकेत था।
राहु और केतु के सूर्य-चंद्र के साथ आने से ग्रहण होते हैं, जो राजनीतिक अशांति, सत्ता परिवर्तन और समाजिक उथल-पुथल के संकेत माने जाते थे।
भीष्म पितामह ने स्वयं अपनी मृत्यु का समय चुना था। उन्होंने तब तक प्राण नहीं त्यागे जब तक सूर्य उत्तरायण (मकर संक्रांति) में प्रवेश नहीं कर गया। यह वैदिक परंपरा में आत्मा की मुक्ति के लिए सबसे उत्तम समय माना जाता है।
व्यास ने हंस-समान ऋषियों का उल्लेख किया है जो भेदभाव और आध्यात्मिक ज्ञान के प्रतीक हैं। यह महाकाव्य के आध्यात्मिक नाटक को खगोलीय घटनाओं से जोड़ता है और दिखाता है कि कैसे ब्रह्मांडीय घटनाएं मानवीय चेतना के उन्नयन से जुड़ी होती हैं।
महाभारत में सूर्य की गति का वर्णन केवल खगोलीय जानकारी नहीं है बल्कि यह वैदिक काल-गणना प्रणाली का भी प्रमाण है। उत्तरायण और दक्षिणायन का विभाजन, मकर और कर्क संक्रांति का महत्व और इनका आध्यात्मिक जीवन से संबंध दिखाता है।
महाभारत युद्ध अठारह दिन तक चला था। प्रत्येक दिन आकाश में नए संयोग बनते रहे। इस अवधि में :
यह सब कुछ युद्धभूमि की घटनाओं के साथ तालमेल बिठाते हुए चलता रहा। प्राचीन भारतीय दृष्टि में यह संयोग अकस्मात नहीं था बल्कि ब्रह्मांडीय व्यवस्था का हिस्सा था।
आधुनिक खगोलविदों ने प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर का उपयोग करके व्यास के वर्णन की जांच की है। विभिन्न विद्वानों द्वारा सुझाई गई तिथियां :
विद्वानों के बीच महाभारत युद्ध की तिथि को लेकर मतभेद है :
मत/सिद्धांत | प्रस्तावित तिथि | मुख्य आधार |
---|---|---|
पारंपरिक हिंदू गणना | 3102 ईसा पूर्व | कलियुग आरंभ के साथ तालमेल |
आधुनिक खगोलीय गणना | 3139 ईसा पूर्व | प्लेनेटेरियम सॉफ्टवेयर का प्रयोग |
वैकल्पिक खगोलीय गणना | 5561 ईसा पूर्व | सभी ग्रहों की स्थिति का मेल |
पुराण आधारित गणना | 2449 ईसा पूर्व | पुराणों के अनुसार वंशावली |
पश्चिमी इतिहासकारों का मत | 1424 ईसा पूर्व | पारंपरिक इतिहास के अनुसार |
भूगर्भीय साक्ष्य आधारित | 1900 ईसा पूर्व | हस्तिनापुर की बाढ़ के प्रमाण |
दुर्भाग्यवश, अभी तक कोई भी विद्वान ऐसी तिथि नहीं दे सका है जो व्यास द्वारा वर्णित सभी खगोलीय स्थितियों को पूर्णतः संतुष्ट करती हो। यह महाभारत कालक्रम निर्धारण की सबसे बड़ी चुनौती है।
कुछ अनुसंधानकर्ताओं का मानना है कि महाभारत काल में हैली धूमकेतु भी दिखाई दिया था, जो व्यास द्वारा वर्णित उल्का पिंडों की व्याख्या करता है। धूमकेतु की उपस्थिति प्राचीन काल में महान परिवर्तन की सूचक मानी जाती थी।
महाभारत में खगोलीय घटनाओं का वर्णन केवल वैज्ञानिक रुचि के कारण नहीं है। यह दर्शाता है कि प्राचीन भारतीय समाज में धर्म, विज्ञान और दर्शन का गहरा मेल था। आकाशीय संकेतों को ईश्वरीय संदेश माना जाता था।
ग्रहों की स्थिति को कर्म फल और नियति का प्रकटीकरण समझा जाता था। युद्ध से पूर्व के अशुभ संकेत दिखाते थे कि यह संघर्ष अपरिहार्य था और इसके परिणाम भी पूर्व निर्धारित थे।
वैदिक परंपरा में समय को चक्रीय माना जाता है। युग परिवर्तन के समय आकाशीय घटनाएं होती हैं जो सामाजिक और राजनीतिक बदलाव का संकेत देती हैं। महाभारत युद्ध द्वापर युग से कलियुग में संक्रमण का प्रतीक माना जाता है।
महाभारत का संदेश यह है कि मनुष्य ब्रह्मांड का एक अभिन्न अंग है। जो कुछ भी आकाश में होता है, उसका प्रभाव धरती पर और मानव जीवन पर पड़ता है। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में ज्योतिष को इतना महत्व दिया गया।
महाभारत का खगोलीय विवेचन हमें दिखाता है कि प्राचीन भारतीय सभ्यता में विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत संयोग था। व्यास द्वारा वर्णित आकाशीय घटनाएं केवल काव्य अलंकार नहीं हैं बल्कि उस समय की वैज्ञानिक समझ का प्रमाण हैं।
यह महाकाव्य हमें सिखाता है कि मानव जीवन की प्रत्येक घटना ब्रह्मांडीय चेतना का हिस्सा है। कुरुक्षेत्र का युद्ध केवल पांडवों और कौरवों के बीच नहीं था बल्कि यह आकाश और पृथ्वी, देवताओं और मनुष्यों, तथा अच्छाई और बुराई के बीच का महासंग्राम था।
आज भी जब हम रात्रि में तारों को देखते हैं, तो हमें याद रखना चाहिए कि हजारों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने इसी आकाश को देखकर मानव जीवन के सबसे गहरे सत्यों को समझा था। महाभारत का आकाशीय वर्णन न केवल एक युद्ध का इतिहास है बल्कि यह मानवता के लिए एक शाश्वत संदेश भी है कि हमारा भाग्य तारों में लिखा है, परंतु हमारे कर्म हमारे हाथों में हैं।
इस महाकाव्य की खगोलीय सटीकता आज भी विद्वानों को आश्चर्यचकित करती है और यह प्रमाणित करती है कि प्राचीन भारत में खगोल विज्ञान का स्तर कितना उच्च था। व्यास की दूरदर्शिता और वैज्ञानिक सोच का परिचय देते हुए, महाभारत आज भी प्राचीन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच सेतु का काम करता है।
अनुभव: 32
इनसे पूछें: जीवन, करियर, स्वास्थ्य
इनके क्लाइंट: छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
इस लेख को परिवार और मित्रों के साथ साझा करें