By पं. नीलेश शर्मा
श्रीकृष्ण के अवतरण और ज्योतिषीय योगों की सम्पूर्ण विवेचना
जन-जन के चित्त में अमिट स्थान बना चुके श्रीकृष्ण, योगेश्वर, निष्काम कर्मयोग के आचार्य और रसभरे लीलाधर, की कथा केवल भक्ति व मिथकों तक सीमित नहीं है। उनका अस्तित्व भारतीय सभ्यता के दार्शनिक, सामाजिक, कला और सांस्कृतिक ताने-बाने में गहराई से गुंथा हुआ है। यद्यपि श्रीकृष्ण की लीलाएँ, उपदेश, चमत्कार और रणनीति हर आयु वर्ग को मंत्रमुग्ध करते हैं, इन सबसे अलग है वह दिव्य ज्योतिषीय छवि, जिसने उनके पृथ्वी अवतरण का मार्ग प्रशस्त किया। यह जन्म-कुंडली सदीयों से शोध, जिज्ञासा और साधना का विषय बनी है, एक ऐसी खगोलीय संरचना जिसमें देवत्व, करुणा, वीरता, रस और विवेक का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है।
श्रीकृष्ण ने द्वापरयुग में जन्म लिया, एक समय जब अधर्म अपने चरम पर था, अत्याचार, क्रोध व लोभ ने जन-मानस को भयभीत कर रखा था। कंस के आतंक, देवकी-वासुदेव के बंधन और मथुरा-गोकुल के वीरान माहौल में, उनके जन्म की घड़ी प्रतीक बन गई एक गहन दार्शनिक सत्य की, कि गहन संकट की बेला में ही सृष्टि नवसृजन के लिए सक्षम होती है।
भारतीय कालगणना में कृष्ण पक्ष की अष्टमी, विशेष रूप से श्रावण मास की, ग्रह चाल, नक्षत्र और ऊर्जा के उतार-चढ़ाव का दुर्लभ संगम है। अर्धरात्रि, रात्रि का वह कालांश जब नूतन ऊर्जा जन्म लेती है, आध्यात्मिक रूप से चैतन्यता व परिवर्तन का घड़ी मानी जाती है। श्रीकृष्ण का इसी समय जन्म, अंतर्हित रूप से परिवर्तन, नवजागृति व आशा का संकेतन करता है।
गंगा-यमुना के संगम क्षेत्र में स्थित मथुरा, केवल एक नगर नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक चेतना का केन्द्र रहा है। यहाँ की वायु स्वयं में पुराणों, वेदों, उपनिषदों और युगपुरुषों की गाथा लिए हुए है। कृष्ण का मथुरा में जन्म होना, इस अनूठे दर्शनों-परंपरा की प्रकृति को और बल देता है।
वृषभ लग्न धरती तत्व का प्रतिनिधित्व करता है , भूमि, स्थायित्व, सौंदर्य, कलात्मकता और धैर्य का प्रतीक। जिनकी कुंडली का लग्न वृषभ होता है, उनमें आंतरिक संतुलन, सहनशक्ति और स्थायित्व विशेषरूप से पाया जाता है। श्रीकृष्ण की संपूर्ण जीवन यात्रा, बाल्यकाल से महाभारत, इस स्थिरता और आत्मविश्वास की छाया में रही।
चंद्रमा की वृषभ राशि में उच्च स्थिति, दमित मनोभावों को आकर्षक, सुलझा व करुणामय बनाती है। श्रीकृष्ण का सौम्य, सौंदर्यप्रिय एवं संवेदनशील व्यक्तित्व, उनके जीवन के प्रत्येक मोड़ पर झलकता है, फिर वह चाहे गोकुल का बाल-लीलाएं हों या कुरुक्षेत्र का रणभूमि।
रोहिणी, चंद्रमा के स्वामित्व वाला नक्षत्र है, वृद्धि, सौंदर्य, प्रचुरता व आकर्षण का प्रमुख केंद्र। श्रीकृष्ण की कसौटी पर रोहिणी के पूरे गुण-धर्म, हर धर्म, जाति, वर्ग, यहां तक कि पशुओं-पक्षियों तक उनकी मोहिनी का प्रभाव दिखता है। उनका पालनकर्ता, सभी के प्रिय, यह सब इस नक्षत्र की शक्ति से पोषित है।
राहु का तृतीय भाव (कर्क राशि) में होना, विचारों की मौलिकता, विपरीत परिस्थितियों में रणनीतिक बढ़त और साहसी कृत्यों का आगार है। श्रीकृष्ण के समस्त विपरीत परिस्थितियों में सजग, अचूक निर्णय लेने की क्षमता, फिर चाहे कंस की जेल से पलायन हो, माया की सहायता, या रणभूमि में अप्रत्याशित घोषणा, राहु के प्रभाव से ही संभव हुआ।
शुक्र के कर्क में तृतीय भाव में स्थित होना, माधुर्य, सौंदर्य, काव्य-भाव, संगीत, तथा हृदयस्पर्शी कला का संकेतन है। श्रीकृष्ण का बंसीप्रिय स्वभाव, रासलीला का रस और प्रेम में समानता, सब कुछ शुक्र के प्रभाव से सहज, मनमोहक व समावेशी बनता है। उनकी आकर्षण शक्ति न केवल नारी-पुरुष में बल्कि पूरी प्रकृति में फैल गई।
मंगल कर्क में, तृतीय भाव में होने से, भले ही नीचस्थ कहलाता है, फिर भी यह विलक्षण रचनात्मकता व संकट के समय अप्रत्याशित वीरता उभारता है। श्रीकृष्ण द्वारा कंस, बहुत सी असुर शक्तियों, एवं महाभारत युद्ध में दिखाए अद्भुत रण-कौशल का आधार यही मंगल है। संघर्ष के बीच से विजय का मार्ग निकालना, प्रतिकूलता में अवसर ढूंढ़ना, मंगल का प्रभाव।
सिंह राशि में सूर्य और बृहस्पति दोनों की स्थिति, कुंडली को अपूर्व ओज, बुध्दिमत्ता, राजसी नेतृत्व और करूणा भरा भाव प्रदान करती है। सूर्य का अपना घर, बृहस्पति का कुण्डलीगत केंद्र, इनका मेल कृष्ण को एक साथ, नेता, गुरु और मार्गदर्शक बनाता है। जीवनभर कृष्ण सत्य, न्याय और करुणा के अद्भुत मिश्रण रहे।
कन्या में बुध का पंचम भाव में स्थिति, तेजस्वी बुद्धि, रुचिपूर्ण संवाद, हल्के-फुल्के हास्य और व्यंग्य की शैली उनकी दिव्य संवाद-शैली की जड़ है। यही कारण रहा कि गीता जैसे गूढ़ उपदेश भी सहज, स्पष्ट और व्यावहारिक रहे। कृष्ण का संपूर्ण संवाद-सार कौशल बुध के कारण अपूर्व बना।
वृश्चिक में सप्तम भाव का शनि, अधिकार, देर सबेर जीत, गहन अंतर्दृष्टि और जटिल संबंधों को संतुलित करने की सामर्थ्य देता है। कृष्ण की भूमिका, राजदूत, मध्यस्थ और नीति-निर्धारक के रूप में, यहीं से पुष्ट होती है। युद्ध के पहले बार-बार संधि के प्रयास, संवाद की दृढ़ता, शनि का प्रभाव।
मकर में नवम भाव का केतु, मोक्ष, आत्मिक चेतना, गूढ़ तत्त्व-ज्ञान एवं सांसारिक अव्यवस्था से परे जाकर सत्य की खोज। श्रीकृष्ण का उपदेश, अर्जुन को सांसारिक फल की इच्छा से ऊपर उठकर कर्म करने की सीख इसी के प्रभाव का परिणाम है।
प्रथम भाव में उच्च चंद्रमा व चतुर्थ भाव में बृहस्पति की स्थिति, महान प्रशंसा, मान-सम्मान और भक्ति का अप्रतिम प्रवाह। यह योग कृष्ण को युगों-युगों तक प्रिय बना देता है।
सिंह में सूर्य-बृहस्पति का मेल, न्यायशील नेतृत्व, संरक्षण और समाज के सभी वर्गों के प्रति करुणा। कृष्ण का अध्यक्ष, सलाहकार, राजा-समान आदर्श, यही योग देता है।
सबल सूर्य और बुध के मेल से अद्भुत तार्किक योग, शब्दों की चमत्कारिक शक्ति, गहन ज्ञान और राजनयिक प्रावीण्यिता। गीता का सम्मोहक वक्तृत्व, बाधाओं को संवाद से सुलझाने की क्षमता, इस योग की देन है।
महत्वपूर्ण भावों के स्वामियों में परस्पर संबंध कुण्डली के सभी अंगों में संतुलन, वैराग्य व कर्तव्य पर स्थायी केंद्र बनाता है। श्रीकृष्ण का संदेश, सेवा के साथ वैराग्य, का सार।
शरीर के पार, आत्मा के अनंत सच के प्रति झुकाव, जीवन के हर पहलू में अध्यात्म की गहराई।
कृष्ण का जन्म रात के अंतिम प्रहर, जब धरती पर लंका, निराशा व भय व्याप्त था, अपने आप में आशा का बीज है। चंद्रमा की शक्ति एवं केतु की नवम भाव में स्थिति, कृष्ण के जन्म को आकाशीय संदेश में बदल देती है। कृष्ण का जीवन इस बात का प्रतीक बनता है कि गहन अंधकार में भी दिव्यता की किरणें पद्मिनी योग की तरह उभरती हैं।
बाल्यकाल में असुरों का संहार, माखन-चोरी की सरलता, ग्वाल-बालों के बीच लोकप्रियता व माता यशोदा की वात्सल्य भावना, इन सबका थल चित्र श्रीकृष्ण की कुण्डली में विभावित गोचर ग्रहों में मिलता है। राहु-शुक्र-मंगल की त्रयी, उनके अद्भुत बचपन का अनूठा साम्य है।
चतुर्थ भाव में बृहस्पति और पंचम में बुध की स्थिति, कृष्ण को जन्मजात आचार्य, नीतिदर्शक और साहित्य प्रेमी बनाती है। गीता, उद्धव-उपदेश आदि सभी में संवाद का पारदर्शी तत्व इन्हीं ग्रहों की देन है।
तृतीय भाव में राहु, शुक्र, मंगल की स्थिति ने कृष्ण को ऐसी व्यूह-रचना की शक्ति दी कि वे रणभूमि में बलपूर्वक न जीतकर, मस्तिष्क व युक्ति से सदा जय हासिल करते रहे। अपना जीवन दांव पर लगाते हुए, बार-बार समान्य जन की रक्षा और शांति स्थापित करते रहे।
प्रथम भाव में उच्च चंद्रमा ने केवल बाहरी आकर्षण या सौंदर्य नहीं, बल्कि मन की गहराइयों से इस करुणामय मानव को गढ़ा। उनकी हंसी, आंसू और प्रेम किसी को भी छू सकते थे; पशुपालकों से लेकर राजाओं तक, सभी पर इस आकर्षण का असर था।
शुक्र व चंद्र की शक्ति ने कृष्ण की रासलीला, भक्ति, संगीत तथा रस-आनंद को सार्वभौमिक बना दिया। उनके प्रेम में स्वार्थ या वासना नहीं, बल्कि पूर्ण समर्पण और माधुर्य रहा।
शनि का सप्तम भाव में स्थिति, श्रीकृष्ण की भूमिका को चतुर राजदूत, शांति-दूत और सभी पक्षों का ध्यान रखने वाला बनाती है। दुर्योधन के समक्ष संधि के अनवरत प्रयास, शांतिपूर्ण समाधान, यही शनि का बल।
केतु का नवम भाव में होना, जन्मजात वैराग्य, संसार-माया से ऊपर उठकर सत्य की खोजकरना, तथा दूसरों को भी उस पथ पर ले जाना।
बलराम का साया, माता यशोदा की गोद, कंस का आतंक, गोकुल-वासियों की रक्षा, ऋषियों का सान्निध्य, इन सभी घटनाओं में ग्रहों का गूढ़ संबंध विद्यमान है। कुण्डली के भाव, नक्षत्र और योग हर प्रकरण में झलकते हैं।
महाभारत युद्ध में अर्जुन को दिया गया गहन, व्यापक और व्यावहारिक उपदेश, गीता, बुध-बृहस्पति की सम्मिलित शक्ति का सर्वोच्च उदाहरण है। विचार, वाणी, तर्क, भक्ति, सब कुछ उसमें सहज, सरल और अतल गहराई लिए प्रस्तुत है।
रासलीला केवल ललित नृत्य नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के संयोग का प्रतीक, प्रेम का सार्वभौमिककरण, कुंडली में शुक्र और चंद्र से उत्पन्न।
कुरीतियों से त्रस्त समाज में शांति स्थापना, युद्ध की अनिवार्यता और समाधान हेतु सतत प्रयास शनि, राहु-मंगल और बृहस्पति-विन्यास का परिणाम है।
महाभारत के उपरांत श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका-वास, प्रेयसी रुक्मिणी से संवाद और अंततः स्व-देह का विसर्जन, इन सबकी जड़ केतु व नवम भाव के प्रभाव में है। अंतिम शिक्षा, संस्कार, वैराग्य और मोक्ष की ओर बढ़ना।
श्रीकृष्ण की कुंडली इस बात की उदाहरण है कि किस प्रकार सांसारिक सफलता और आत्मिक शांति दोनों एक साथ संभव हैं। किसी भी कार्य को पूरे मन से करें, पर आसक्ति से दूर रहें, यह सिखावन गूढ़ है।
राहु-मंगल की शिक्षा है कि भय व भ्रम को सृजनशीलता में बदलें। विपत्तियां अवसर बन सकती हैं यदि उन्हें समझदारी व धैर्य से सधा जाए।
बुध की स्थिति व भाषागत क्षमता, हर विवाद को संवाद में बदलने और किसी भी परिस्थिति में करुणा को बनाए रखने की प्रेरणा देती है।
केतु और बृहस्पति के सम्मिलन से यह शिक्षा मिलती है, सेवा ऐसा करें कि उसमें अपेक्षा न हो, पर कार्य में संपूर्णता अवश्य हो।
आज के दोराहे, संघर्ष और आत्मिक छटपटाहट से ग्रसित समाज में श्रीकृष्ण की कुंडली, साहस, धैर्य, प्रेम, न्याय और भक्ति के द्वारा, समरसता का मार्ग दिखाती है। वह प्रेरित करती है, संयम व विवेक से जीवन के हर जोखिम को रचनात्मक रंग दे सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण की कुंडली केवल ऐतिहासिक विषय नहीं, जीवन का उत्तम पथ-प्रदर्शक है। यह संदेश देती है कि ग्रहों की हर व्यवस्था आपके लिए एक गूढ़ संकेत है, जो भी परिस्थिति हो, साहस, संतुलन व अनुकरणीयता से आप भी जीवन को दिव्य बना सकते हैं।
प्र. श्रीकृष्ण की जन्म तिथि, समय और स्थान क्या था?
उत्तर: द्वापरयुग के अंतिम चरण में, श्रावण कृष्ण अष्टमी, मध्य रात्रि, मथुरा में।
प्र. श्रीकृष्ण की कुंडली में प्रमुख ग्रह-स्थिति क्या रही?
उत्तर: वृषभ लग्न-राशि, रोहिणी नक्षत्र; तृतीय भाव में राहु-शुक्र-मंगल, चतुर्थ में सूर्य-बृहस्पति, पंचम में बुध, सप्तम भाव में शनि, नवम भाव में केतु की विशेष भूमिका।
प्र. मुख्य योगों का विस्तार से वर्णन करें?
उत्तर: गजकेसरी योग (प्रथम में उच्च चंद्र, चतुर्थ में बृहस्पति), राजयोग (सिंह में सूर्य-बृहस्पति), बुध-आदित्य योग (सबल सूर्य-बुध), धर्म-कर्माधिपति योग (महत्वपूर्ण भावों के स्वामियों में परस्पर संबंध), नवम में केतु (अध्यात्म व मोक्ष का झुकाव)।
प्र. कुंडली से कौन-कौन से जीवन-सिद्धांत सीखने मिलते हैं?
उत्तर: संतुलन की साधना, विपत्ति में चातुर्य, संवाद में माधुर्य, निष्काम सेवा और वैराग्य की ओर प्रवृत्ति।
प्र. आज के जीवन में कृष्ण की कुंडली कितनी प्रासंगिक है?
उत्तर: संकट, द्वंद्व, आधुनिकता एवं संघर्ष के बीच यह कुंडली, संयम, साहस, प्रेम व भावनात्मक संतुलन का नया दृष्टिकोण देती है, जो जीवन-निर्माण एवं आत्म-निर्भरता का अमर सूत्र है।
अनुभव: 25
इनसे पूछें: करियर, पारिवारिक मामले, विवाह
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि.
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