By पं. नीलेश शर्मा
श्रीकृष्ण का जन्म, पंच महापुरुष योग, रोहिणी में उच्च चंद्र और जीवन का ज्योतिषीय संदेश
भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म एक विस्मयकारी, पूजनीय और कालातीत प्रतीक है। भागवत पुराण तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, कृष्ण का अवतरण न केवल ऐतिहासिक या पौराणिक घटना थी, बल्कि एक ब्रह्मांडीय व्यवस्था, जो असाधारण शुभ ग्रह स्थिति द्वारा अनुकूलित थी।
श्रीकृष्ण का जन्म आधी रात को, भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र में हुआ। कथाएँ बताती हैं कि जन्म के समय मथुरा में तनाव और आतंक का वातावरण था, अत्याचार अपने चरम पर और आशा क्षीण थी। जैसे ही आकाशीय घड़ी ने मध्यरात्रि की सूचना दी, दिव्य अवतारी ने श्वास ली, नवयुग का आरंभ कर, यह सिद्ध किया कि दिव्य कृपा पृथ्वी पर सबसे ज़्यादा ज़रूरत के समय उतरती है।
हज़ारों वर्षों से विद्वान एवं साधक श्रीकृष्ण के जन्म के समय की अद्वितीय ग्रह-स्थितियों से आकर्षित होते रहे हैं। शास्त्रों के अनुसार, भगवान कृष्ण का जन्म वृषभ लग्न (Vrishabha Lagna) में हुआ, चंद्रमा उच्च का था, यह एक अत्यंत दुर्लभ, प्रबल और शुभ योग है।
श्रीकृष्ण की कुंडली में चंद्रमा का स्थान अत्यंत केंद्रीय है। वे रोहिणी नक्षत्र में जन्में, जो चंद्रमा का प्रिय माना जाता है। वैदिक ज्योतिष में, रोहिणी नक्षत्र तथा वृषभ राशि, जिसमें चंद्रमा उच्च होता है, भावनाओं, कलात्मकता और पोषण में शिखर का प्रतीक है।
कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि भी गहरी प्रतीकात्मकता लिए है। चंद्रमा की सोलह कलाएँ पूर्णता, भावनात्मक समृद्धि और सृजनात्मक शक्ति दर्शाती हैं। कृष्ण को शोडषकलावतार कहा जाता है, अर्थात वे सभी सोलह भावनात्मक और आत्मिक स्तरों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
यह उच्च चंद्रमा अद्भुत मानसिक स्पष्टता, गहन अंतर्ज्ञान, आकर्षण, कलात्मकता और दूसरों में प्रेम एवं भक्तिभाव जागृत करने की क्षमता देता है। श्रीकृष्ण के जीवन, लीलाओं एवं उपदेशों में ये गुण स्पष्ट दिखते हैं, बालक्रीड़ाओं से लेकर गीता के तत्वज्ञान तक।
श्रीकृष्ण की कुंडली में अद्भुत विशेषता है, तुला राशि में, छठे भाव में उच्च शनि का होना। वैदिक दृष्टि में शनि तुला में उच्च मान्य है। छठा भाव शत्रुओं, आपत्ति, ऋण, रोग और सेवा का द्योतक है; यहां उच्च शनि, जो न्याय, अनुशासन, कठिनाई में विजय और जनसेवा देता है, उस आत्मा के लिए संकेत है जो विपरीत परिस्थितियों में जन्म ले, अन्याय पर विजय प्राप्त करे और श्रम-सेवा को ही पूजा माने।
कृष्ण का जन्म, कारागार में, जन्म के साथ ही प्राणघातक आपत्तियों, कंस के उत्पीड़न और निरंतर विरोध, इस शनि योग का प्रत्यक्ष चित्र है। यही स्थिति न्याय की भावना, धैर्य, विपत्ति में प्रबंधन दक्षता, दीर्घायु और जनसेवा की पुष्टि करती है।
मंगल का केंद्र में, अपने या उच्च राशि में होना।
प्रभाव: महान साहस, नेतृत्व क्षमता, प्रशासनिक प्रावीण्य तथा युद्धकौशल।
श्रीकृष्ण का युद्ध, रणनीति और विपरीत परिस्थितियों का तत्काल हल, यही योग दर्शाता है।
बुध का केंद्र में, अपने या उच्च स्थान में होना।
प्रभाव: त्वरित बुद्धिमत्ता, स्पष्ट संवाद, तर्कशक्ति, अद्भुत संवाद-कौशल।
भगवद्गीता, विजयगाथाएँ, नीति-संवाद, यह योग श्रीकृष्ण को अद्वितीय बुद्धिधारी बनाता है।
बृहस्पति का केंद्र में, अपने या उच्च स्थान में होना।
प्रभाव: गहन ज्ञान, धर्मशीलता, दया, विलक्षण आत्मिक चेतना।
श्रीकृष्ण के उपदेश, उनकी करुणा और नीति, इस योग की देन हैं।
शुक्र का केंद्र में, अपने या उच्च स्थान में होना।
प्रभाव: कलात्मकता, संगीत, आकर्षण, शौर्य और रस का अभ्यास।
बंसी वादन, रासलीला, आकर्षक व्यक्तित्व, यह योग पूर्णता से झलकता है।
शनि का केंद्र में, अपने या उच्च स्थान में होना।
प्रभाव: न्यायप्रियता, कूटनीति, धैर्यवान नेतृत्व, अनुशासन।
शांति की पहल, अटूट धैर्य, कृष्ण के शश योग का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
इन योगों का सम्मिलन साधारण प्रतिभा नहीं, बल्कि ऐसे दिव्यत्व को इंगित करता है, जो हर परिस्थिति में अनुकरणीय, प्रेरक और मार्गदर्शक बने।
वृषभ लग्न व रोहिणी नक्षत्र में उच्च चंद्रमा, अनूठी स्थिरता, सौंदर्य, पोषण और परिवेश को बदलने की शक्ति देता है। रोहिणी समृद्धि, ऐश्वर्य और पृथ्वी-सुख से जुड़ी है, किंतु कृष्ण में यह आध्यात्मिक उत्थान और जनकल्याण में परिवर्तित होती है।
इस स्थिति से विपदा पर विजय, न्यायप्रियता और मानव सेवा भाव में उत्कृष्टता प्राप्त होती है।
इनके योग से श्रीकृष्ण का चरित्र, योद्धा, मनीषी, आध्यात्मिक नेता, कलाकार और न्यायप्रिय, हर संभावना को समेटे हुए है।
कारागार में जन्म, कंस का भय, अष्टमी की घड़ी, आधी रात को मातृत्व का आरंभ, पृथ्वी पर आशा की किरण। रोहिणी का चंद्रमा और अष्टमी का बल, ऐसी आत्मा का संकेतन जो केवल संकट पार न करे, बल्कि दूसरों को भी उबारें।
शैतानी षड्यंत्र, दानवों का आतंक, बचपन में ही कुठाराघात, किन्तु शनि की उच्च स्थिति के कारण, श्रीकृष्ण हर विपत्ति को शक्ति में बदलते रहे। उनकी प्रतिक्रिया सदैव करूणामय, परिश्रमी और अनुशासनयुक्त रही।
हंस योग (बृहस्पति) और भद्र योग (बुध) का वयस्क अवस्था में प्रसार, कृष्ण का चारीoteer रूप, गीता का उपदेश, व्यावहारिक-सांसारिकता का मेल। वे दुनिया के मार्गदर्शक के रूप में उभरे।
श्रीकृष्ण का संगीत, रासलीला, रस-भाव, यह सब उनके मालव्य योग की ऊर्जा है। उनका आकर्षण सरल रोमांस नहीं, बल्कि सृजन, भक्ति और अर्जुन की उच्च भावना का प्रतीक बना।
रणनीति, न्याय, चुनौती का संतुलन, हर कार्य में कृष्ण ने न्याय और कूटनीति का श्रेष्ठतम रूप दिखाया। कहीं व्यूह रचना, कहीं समाधान, योद्धा का साहस व न्याय का संतुलन।
श्रीकृष्ण की कुंडली को आज भी सबसे दुर्लभ और शुभ मानी जाती है। उच्च चंद्रमा, पंच महापुरुष योग, मानव संभावना के आदर्श बने। “जन्माष्टमी, भाद्रपद, अर्द्धरात्रि, रोहिणी”, सिर्फ तिथियाँ नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय मंचन है।
श्रीकृष्ण की जन्मकुंडली आस्था, अध्यात्म और मानवता की जीवित शिक्षा है। उच्च चंद्रमा, महापुरुष योग, सिर्फ सौभाग्य नहीं, बल्कि वह सार्वभौमिक संभावना है जो हर मानव में जागृत हो सकती है।
प्र. श्रीकृष्ण की कुंडली कौन से ग्रह-योग से विशेष है?
उत्तर: पंच महापुरुष योग (रुचक, भद्र, हंस, मालव्य, शश), वृषभ लग्न व रोहिणी नक्षत्र में उच्च चंद्रमा और छठे भाव में तुला में उच्च शनि।
प्र. पंच महापुरुष योग का प्रभाव क्या होता है?
उत्तर: ये योग महान शक्ति, बुद्धि, करुणा, सौंदर्य, न्याय और धैर्य देते हैं, जो श्रीकृष्ण के चरित्र में झलकते हैं।
प्र. बचपन के संकटों में कुंडली का क्या योगदान रहा?
उत्तर: उच्च शनि, छठे भाव में, हर विपत्ति को अवसर में बदलने, अन्याय पर विजय का योग।
प्र. श्रीकृष्ण की कुंडली आज क्यों प्रासंगिक है?
उत्तर: संतुलन, धैर्य, ज्ञान, प्रेम और न्याय, समग्र जीवन के लिए आदर्श।
प्र. कुंडली के ग्रह-स्थिति और जीवन-घटनाओं में क्या संबंध है?
उत्तर: प्रत्येक चरित्र-विशेषता, कठिनाई, विजय व उपदेश, कुंडली के विशिष्ट ग्रह, भाव और योगों से प्रत्यक्ष जुड़ी है।
अनुभव: 25
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