By पं. अमिताभ शर्मा
जानें अथर्वशीर्ष के अद्भुत मन्त्र, तात्त्विक गूढ़ता, और वैदिक गणपति उपासना का आधुनिक संदर्भ एवं साधना में उपादेयता
श्री गणपति अथर्वशीर्ष एक उपनिषद है जो भगवान गणेश को समर्पित है - वही गणपति जो सनातन परंपरा में विघ्नहर्ता और बुद्धि के अधिष्ठाता के रूप में पूजित हैं। यह ग्रंथ केवल स्तुति नहीं है, बल्कि वैदिक दर्शन के अत्यंत गूढ़ पहलुओं को सरल प्रतीकों और मंत्रों के माध्यम से प्रस्तुत करता है। इसकी रचना आठवीं या नौवीं शताब्दी में ऋषि गणक के द्वारा ध्यानावस्था में प्राप्त हुई मानी जाती है। यह उपनिषद गणपत्य संप्रदाय का मुख्य स्तंभ है और महाराष्ट्र सहित भारत के कई भागों में विशेष रूप से श्रद्धा से पढ़ा और सिखाया जाता है।
श्री गणपति अथर्वशीर्ष अथर्ववेद से संबद्ध एक लघु उपनिषद है। इसकी सबसे खास बात यह है कि यह भगवान गणेश को केवल एक लोकदेवता के रूप में नहीं, बल्कि परब्रह्म - सत्-चित्-आनंद स्वरूप परम तत्त्व - के रूप में प्रतिष्ठित करता है। यहाँ भगवान गणेश को साकार और निराकार दोनों ही रूपों का प्रतिनिधि माना गया है।
इस ग्रंथ का उद्देश्य केवल धार्मिक नहीं है, यह आध्यात्मिक साधना और आत्मविकास का एक व्यवस्थित साधन भी प्रस्तुत करता है। इसके माध्यम से:
श्री गणपति अथर्वशीर्ष कुल 17 मंत्रों से युक्त है। इसकी रचना अत्यंत संक्षिप्त, परंतु भाव और अर्थ से भरपूर है। यह क्रमशः
प्रत्येक श्लोक में प्रतीक और तात्त्विक ज्ञान का ऐसा समन्वय है जो साधक को बाह्य पूजा से अंतर्यात्रा की ओर प्रेरित करता है।
इस ग्रंथ का सबसे प्रभावशाली पक्ष इसकी मंत्र शक्ति है। "ॐ गं गणपतये नमः" बीजमंत्र की व्याख्या कुछ इस प्रकार की गई है:
यह मंत्र साधक की चेतना में कंपन उत्पन्न करता है, जिससे उसका आंतरिक शुद्धिकरण होता है।
गणपति के प्रतीकात्मक स्वरूप को वेदांत के साथ जोड़ा गया है:
इस प्रकार भगवान गणेश सगुण-निर्गुण के बीच सेतु के रूप में प्रस्तुत होते हैं - जहाँ भक्ति और ज्ञान एक दूसरे से अलग नहीं बल्कि सहायक बनते हैं।
आज की भागदौड़ भरी और तनावग्रस्त जीवनशैली में श्री गणपति अथर्वशीर्ष का अभ्यास कई स्तरों पर उपयोगी सिद्ध हो सकता है:
योग साधक और आध्यात्मिक साधना करने वाले इसे अपने दैनिक अभ्यास का हिस्सा बनाते हैं।
श्री गणपति अथर्वशीर्ष केवल एक स्तोत्र नहीं है, यह एक वैदिक सिद्धांतों पर आधारित आध्यात्मिक विज्ञान है। यह हमें सिखाता है कि गणेशजी केवल विघ्नहर्ता नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्मस्वरूप हैं। जब हम इस ग्रंथ का श्रद्धापूर्वक पाठ करते हैं, तो हम केवल मंत्र नहीं दोहरा रहे होते - हम अपने भीतर छिपे परब्रह्म से संवाद कर रहे होते हैं।
चाहे उद्देश्य सांसारिक सफलता हो या आत्ममुक्ति, यह उपनिषद आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना सैकड़ों वर्ष पूर्व था - एक सतत स्मरण कि आत्मबोध की राह पर गणपति ही हमारे प्रथम पथदर्शक हैं।
अनुभव: 32
इनसे पूछें: जीवन, करियर, स्वास्थ्य
इनके क्लाइंट: छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
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