By पं. अमिताभ शर्मा
गीता से सीखें कैसे मतभ्रम, भय और असफलता को मात देकर स्थिर आत्मविश्वास को स्थापित करें
कभी-कभी हम सुबह उठते ही खुद को नापसंद करते हैं-यह स्वाभाविक नहीं, धीरे-धीरे बनने वाला जंजाल है। तेरह साल की उम्र में किसी का चलने के तरीके पर हँसना, टीचर का किसी और के आत्मविश्वास की तारीफ करना, या किसी नए कपड़े पर “बहुत कोशिश कर रहे हो…” जैसी टीका-टिप्पणी मन में गहरे उतर जाती है। धीरे-धीरे हम अपनी असलियत को छिपाना सीख जाते हैं।
गीता हमें बताती है-असली शक्ति शरीर, दिखावे या दूसरे के बोलने में नहीं, “स्व” में है। दूसरी राय, समाजिक सफलता या असफलता-ये सब अस्थायी हैं। आत्मा (आत्मा-ātman) सदैव शांत, अचल और साक्षी है।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ (गीता 2.38)
आदमी असल में तब बड़ा बनता है, जब वह आलोचना और प्रशंसा, हार और जीत, सुख और दुख-इन सब में संतुलित रहता है। यही संतुलन भीतर से भरोसे को जन्म देता है।
गीता में अर्जुन की सबसे बड़ी घबराहट यही थी कि “लोग क्या कहेंगे?”, “मैं गलत न हो जाऊँ?!” समाधान: ध्यान की आदत, थोड़ी सी खुद से बात-“क्या मैं सचमुच उतना असहाय हूँ जितना सोचता हूँ?” जवाब मिलेगा-“नहीं”।
“दूसरों के साथ अपनी तुलना मत करो, हर आत्मा का सफर उसका है।” (गीता 3.35) ख़ुद की यात्रा, खुद के बनाए हुए मानकों पर तय हो-not by society.
“कर्म करो, फल की चिंता मत करो।” (गीता 2.47) लाइफ में सबसे ज़्यादा असुरक्षा तब पैदा होती है जब हम हर बात का परिणाम अपने वश में मानने लगते हैं। टारगेट नहीं, प्रोसेस पर ध्यान देना सीखिए।
गीता कहती है-“स्वधर्म का पालन, अपने डर और दुख को स्वीकार कर, उनके बावजूद आगे बढ़ना ही असली साहस है।” छुपाने से डर मजबूत होता है, स्वीकार करने से टूटता है।
जब आप खुद को आलोचक की नजर से नहीं, “साक्षी” की नजर से देखना शुरू करते हैं, तब अंदर का आत्मविश्वास स्वतः बढ़ने लगता है। “मैं जो हूँ, वही सही हूँ-बाकी चीजें बस अनुभव की यात्रा हैं।
बिंदु | गीता से सीख | जीवन में प्रयोग | आलोचना या चिढ़ |
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समता - हर्ष/विषाद दोनों में संतुलन | दुख-सुख से ऊपर उठना | कठिनाइयों और खुशियों को समान दृष्टि से देखना, मानसिक स्थिरता बनाए रखना | कभी-कभी भावनात्मक उदासीनता माना जाता है |
तुलना की भावना | स्वधर्म - अपना रास्ता खुद चुनो | दूसरों से तुलना न करना, अपने धर्म और कर्तव्यों के प्रति निष्ठा रखना | कभी-कभी स्वधर्म को संकुचित सोच के रूप में लिया जाता है |
फल की चिंता | निष्काम कर्म योग | परिणाम की चिंता छोड़कर कर्म करते रहना, भावनात्मक तनाव से बचना | कुछ लोग इसे महत्वाकांक्षा की कमी मानते हैं |
कमियों का डर | स्वीकार्यता व स्वीकृति | अपनी कमजोरियों को स्वीकार करना, उनसे भागना नहीं | कभी-कभी बहुत अधिक आत्म-आलोचना हो सकती है |
निरंतर असहाय भाव | “मैं आत्मा हूं” - साक्षी भाव | अपने आप को आत्मा के रूप में देखना, भावनाओं और सोच के साक्षी बनना, असहायता से बाहर आना | कभी-कभी भावनात्मक दूरी या उदासीनता के रूप में देखा जाता है |
जैसे अर्जुन ने युद्धभूमि में सबसे बड़े भय, द्वंद्व और भावना के तूफान में भी श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन से आत्म-विश्वास पाया, ऐसे ही हम भी अपने भीतरी संवाद और नजरिए को बदल सकते हैं। आत्मविश्वास कहीं बाहर से नहीं आता, वह भीतर की सच्चाई से उपजता है।
"न कोई तुम्हारे गुण बढ़ा सकता है, न घटा सकता है, जब तुम खुद को जान लेते हो।"
आत्मविश्वास का अर्थ अपनी पहचान, आवाज़ और उद्देश्य को बिना किसी डर, तुलना या बाहरी जुड़ाव के जीना है। गीता कहती है-देखो, जानो, स्वीकारो, और डटकर खड़े हो जाओ।
जीवन की भीड़ में, रुककर अपने आपसे कुछ मिनट बातें करें-“मैं क्या हूं?” जवाब मिलेगा-“जितना खुद पर भरोसा है, उतना ही मेरा संसार है।” यही असली आत्मबल है, यही गीता का सार है।
अनुभव: 32
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