By पं. अमिताभ शर्मा
चिंतन, समर्पण, कथा और ध्यान से मानसिक शांति
हर दिन हजारों विचार, कल्पनाएँ, चिंता और आशंकाएँ मन में आती-जाती रहती हैं। हम सोचते हैं-क्या मैं ठीक कर रहा हूँ? क्या वह मुझसे नाराज़ है? आगे क्या होगा? यह दौड़ कभी खत्म नहीं होती। लेकिन वेद, गीता, रामायण, महाभारत और पुराण सब कहते हैं-जो मनुष्य परिणाम को जकड़ना चाहता है, वह सच्ची शांति कभी नहीं पा सकता।
अर्जुन जब युद्ध से डरकर हथियार छोड़ते हैं, कृष्ण दो टूक कहते हैं- “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (गीता 2.47)। अर्थात कर्म पर अधिकार है, लेकिन फल पर नहीं। रूप, परिणाम, संसार-सब प्रकृति और ईश्वर के और भी गहरे संयोग से बनते हैं।
भीष्म पितामह को कभी विश्वास नहीं था कि वे अपने व्रत, नीति और बुद्धि से महाभारत की दिशा बदल सकते हैं। जीवन भर कोशिश की, लेकिन समय और नियति ने अपने हिसाब से खेल बदल दिया। गांधारी ने अपने सौ पुत्रों को आशीर्वाद दिया, राजयोग कराया, पर उसके जीवन में परिणाम उसकी इच्छाओं से अलग ही निकले।
पात्र / प्रसंग | स्थिति व सोच | क्या सीखा, क्या पाया |
---|---|---|
अर्जुन | युद्ध, डर, बार-बार सोच | निष्काम कर्म, समर्पण, शिक्षा |
भीष्म | नीति, त्याग, भविष्य की चिंता | नियति का मर्म, असत्या का त्याग |
गांधारी | सौ पुत्र, मोह और भविष्य की आशा | परिणाम का नियंत्रण असंभव |
श्रीराम | प्रेम, धर्म, सीता का वनवास | समर्पण, समय के आगे झुकना |
हनुमान | रामकार्य, विफलता का डर | समर्पण, प्रयास का मूल्य |
गीता अध्याय 6 में अर्जुन कहते हैं-“मन अस्थिर, चंचल है, इसे वश में करना कठिन है।”
रामायण में कैकेयी, बार-बार की सोच, आशंका व भ्रम में फँस गईं। अपने निर्णय ने पूरे अयोध्या-राज्य को दुख के गर्त में डाल दिया।
महाभारत में धृतराष्ट्र अपनी सोच के दास बने रहे। उनके जीवन का सोचना ही, उनके परिवार, राज्य के सबसे बड़े पतन का कारण बना।
वेदों में समाधि का, मन-नियंत्रण का, प्रबल अभ्यास का उल्लेख आता है। “मनः पवनसमानः”-मन वायु की तरह है, साधना से ही नियंत्रित हो सकता है।
फिर भी, कृष्ण बताते हैं: “मन को दोस्त बनाओ, उसका दास मत बनो।”
डिटैचमेंट का अर्थ केवल त्याग नहीं बल्कि हर परिणाम, सफलता, असफलता, प्रशंसा, आलोचना के परे अपने मूल स्वभाव और कर्तव्य में अडिग रहना है।
रामायण में हनुमान लंका में सीता की खोज में गए-सैकड़ों बाधाएँ आईं, फलों, परिणामों की चिंता नहीं की, सिर्फ कर्म किया।
महाभारत में भीष्म ने व्रत, वचन, नीति को न छोड़ा, लेकिन परिणाम को समय पर छोड़ना ही सीखा।
भरत ने, राज्य को खुद के मोह से नहीं, श्रीराम के चरणों में समर्पित किया।
गीता कहती है: “न भूत के लिए दुखी हो, न भविष्य की चिंता करो, आज का ध्यान रखो।”
नचिकेता ने मृत्यु के भय, भविष्य की आशंका में जीने की बजाय यमराज से सत्य सीखा, वर्तमान को साधना का स्रोत बनाया।
शिव का तांडव भी यही सिखाता है-समय, परिणाम, भय, मोह सब नश्वर हैं; हर क्षण को साधो, बाकी ईश्वर और नियति पर छोड़ दो।
समर्पण का अर्थ भाग जाना नहीं, डर से हारना नहीं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं: “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।”
शिव ने संसार बचाने के लिए विषपान किया, परिणाम का सोच नहीं किया। राम ने वनवास स्वीकार किया, अपने कर्तव्य का पालन किया।
कृष्ण ने रथ पर बैठकर हर निर्णय का परिणाम समय पर छोड़ दिया।
शिक्षाप्रद कथा | समस्या / दर्द / आशंका | आखिरकार क्या पाया, क्या सीखा |
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सीता (रामायण) | अपमान, अकेलापन, बदनाम होना | तप, धैर्य, अंत में स्वतंत्रता |
द्रौपदी (महाभारत) | अपमान, प्रतिशोध की चाह | कृष्ण का भरोसा, सेवा, कठिनाई में शक्ति |
सती (शिव पुराण) | अपमान, पिता के विरोध, आत्म-स्वीकृति | नया जन्म, आत्मसम्मान, ब्रह्मांड का सम्मान |
प्रह्लाद (भागवत) | पिता का उत्पीड़न, अकेलापन | ईश्वर-भक्ति, विजय, अन्याय पर जय |
1. क्या हमेशा सक्रिय सोच, चिंता से समाधान निकलता है?
नहीं, गहराई में समाधि, समर्पण और कर्म का मूल्य ही समाधान है।
2. क्या अनासक्ति का मतलब निष्क्रियता है?
नहीं, सक्रिय कर्म और उच्च भाव से, फल की चिंता छोड़े बिना नहीं-यही विवेक है।
3. सबसे बड़ी गाथा कौन-सी है प्रक्रिया और क्षणों को जीने की?
नचिकेता की यमराज से वार्ता, श्रीराम का वनवास, द्रौपदी का अपमान-सभी ने प्रक्रिया पर भरोसा करना सीखा।
4. कैसे जानें कि मन को नियंत्रण में कैसे लाएँ?
साधना, कहानी, ध्यान, गीता का आत्म-अनुशासन।
5. कौन-सा गीता श्लोक प्रक्रिया पर विश्वास को, बार-बार सोच से मुक्ति को, सबसे सुंदरता से व्यक्त करता है?
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन…” (गीता 2.47)-करो, फल की चिंता मत करो।
श्रीराम, कृष्ण, सीता, अर्जुन, द्रौपदी, भीष्म-हर किसी ने प्रक्रिया, समय और जीवन की लय पर भरोसा करना सीखा। यही शास्त्रों, कथा-साहित्य और गीता की सबसे सुंदर आवाज़ है-बार-बार सोच, चिंता और परिणाम के मोह से ऊपर उठकर, कर्म में, क्षण में और आत्म-अनुशासन में जीना ही असली शांति, सफलता और मोक्ष है।
अनुभव: 32
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