By पं. अमिताभ शर्मा
संतुलन, शिक्षा, मार्गदर्शन और आत्मचेतना-कथा, उपनिषद, नेतृत्व व आधुनिक जीवन के लिए
भारतीय सभ्यता के कथा-वृत्तान्त केवल आध्यात्मिक गूढ़ता नहीं बल्कि यथार्थ मानव-मनोविज्ञान और सामाजिक संवाद का भी मूल आधार हैं। "शुक्र देव, राजा जनक और दीपकों की कथा" समयातीत है-यह व्यक्ति का गहरा द्वंद्व (सांसारिक सफलता बनाम दिव्य-चेतना) समझाती है। कथा हर उस इंसान के लिए जीवनरेखा है, जो चाहें तो संसार की चमक, जिम्मेदारी या टिकाऊ सफलता को 'अंतर्मन' के दीप से जोड़ सके।
शुक्राचार्य, असुरों के परम ज्ञानी शिक्षक भी, ग्रहणशीलता, परिपक्वता और संतुलित चेतना की खोज में मिथिला के राजर्षि जनक से मिलने पहुंचे। जनक ‘अगरधारी’ न केवल ‘राजा’ बल्कि योगेश्वर, गृहस्थ-साधक और उपनिषदों में सर्वाधिक बार उद्धृत परम पुरुषार्थी भी थे ("जनकादयः"-बृहदारण्यक उपनिषद)। जनक के दरबार ने भारतीय ज्ञान, योग और नेतृत्व-चेतना की नींव रखी।
जब जनक ने दो दीपक सौंपे और कहा, "महल के हर भाग को देखो-तेल की एक बूंद भी गिरी तो शिक्षा नहीं", तो नावक शिष्य ने दीपकों पर आँखें गड़ा लीं। महल की दीवारें, भित्तिचित्र, स्थापत्य, चमक-सब गुम। लौटकर वह बोले: "सब अंधकार सा था, बस दीपकों की लौ दिखी।" जनक मुस्कराए: "यह न योग है, न पूर्ण जीवन-यह तो 'एकाँगी' है।"
अब शुक्र देव ने अनूठी सावधानी, सजगता और खुली दृष्टि अपनाई। दीयों का ध्यान रखा, चलते चलते हर दालान, रंग, झूमर, शिल्प देखे, लोगों की मुस्कराहट-यहां तक कि कालीन की बुनावट और पर्दों की चाल भी नोट की। लौटकर बोले: "राजन, अब हर रंग, चेहरे, दृश्य की झाँकी मिली-तेल गिरा नहीं, लेकिन संसार भी छू लिया।"
जनक बोले: "जैसे तुमने एकाग्रता (ध्यान) बरकरार रखते हुए सहजीवन का सौंदर्य समझा-वैसे ही, सही योग वही है, जो न जीवन से भागे न संसार में डूबे। 'दीपक' आत्मज्ञान, विवेक, दिव्य-स्मृति का प्रतीक है; 'महल/संसार' रंग, रस, संबंध और जिम्मेदारी का। केवल ध्यान से संसार की लीला छूट जाती है, केवल भोग से आत्मा खो जाती है-तेल गिरा, या दीपक बुझा-दोनों में क्षय। निज काम, परिवार, प्रेम, सेवा, समाज सब में 'प्रकाश' उसी दीये से फैलता है।"
कम्यूनिटी सॉल्यूशन्स, आधुनिक स्टार्टअप्स, समाजसेवा, पारिवारिक-व्यापारिक अग्रणी-जो लोग समाधानी, सृजनशील, संगठक हैं, उनके जीवन में 'दीपक' (आत्मसंयम, प्रेरणा) के साथ 'महल' (समाज, सेवा, दायित्व, संतुष्टि) का भी अनुपम संगम है।
Q1: क्या केवल साधना, जप या ध्यान नियंत्रित जीवन दे सकता है?
A: नहीं; यदि भीतर का दीपक तो जल रहा हो लेकिन बाहरी जीवन ठंडा/सूना हो-that too is imbalance.
Q2: क्या केवल जगत, अभियान, टारगेट-seeking ही सुख/संतुलन है?
A: नहीं; सफलता या दृश्य आकर्षण के साथ गहराई और विवेक उतरना जरूरी है।
Q3: वरिष्ठ नागरिक या युवा इस कथा से मुख्यत: क्या ग्रहण करें?
A: Active living with inner reflection-service, anchoring, giving-but without losing awareness.
Q4: क्या अमेरिकी/यूरोपीय सोसाइटीज में भी यही मूल्य हैं?
A: Mindfulness, holistic leadership, stewardship-everywhere this balanced focus is the ideal.
Q5: सर्वोच्च मंत्र:
A: "दीपक गिराए बिना, समस्त महल का आनंद लो-यही पूर्ण पुरुषार्थ और संतुलन है।"
अनुभव: 32
इनसे पूछें: जीवन, करियर, स्वास्थ्य
इनके क्लाइंट: छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
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