By पं. सुव्रत शर्मा
अनादि काल से सूर्य के दिव्य रूपों, कथाओं और आस्था की प्रकाशमयी यात्रा
जब अनंत काल से फैला अंधकार ब्रह्मांड को ढके हुए था, जब कहीं कोई प्रकाश की किरण नहीं थी, तब उस गहन तिमिर में एक दिव्य चेतना ने करवट ली। वह चेतना थी स्वयं भगवान विष्णु की, जो क्षीरसागर की शांत लहरों पर शेषनाग की शैया पर विश्राम कर रहे थे। अचानक उनकी दिव्य आँखें खुलीं, और जैसे ही उन नेत्रों से प्रकाश फूटा, पूरा ब्रह्मांड एक सुनहरी आभा से भर उठा। यही था सूर्यदेव का जन्म - न केवल एक ग्रह का, बल्कि जीवन, चेतना और प्रकाश के स्वयं के अवतरण का।
उस समय जब सृष्टि का कोई नामोनिशान नहीं था, जब न पृथ्वी थी, न आकाश, न दिन था न रात - केवल एक विराट सत्ता का अस्तित्व था। यह सत्ता थी भगवान विष्णु की, जिन्हें उस काल में विराट पुरुष कहा जाता था।
क्षीरसागर के मध्य में एक विशाल कमल का फूल खिला। इस कमल की सुगंध से पूरा वातावरण महक उठा। फूल के मध्य में चार भुजाओं वाले एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए - यही थे ब्रह्मा जी। जब ब्रह्मा जी ने अपनी आँखें खोलीं तो उन्होंने देखा कि वे स्वयं उस महान विष्णु के नाभि-कमल से प्रकट हुए हैं।
उसी क्षण, विराट पुरुष विष्णु ने अपनी दिव्य आँखें खोलीं। उन आँखों में अनंत तेज था, अनंत प्रकाश था। जैसे ही उनकी पलकें उठीं, उन नेत्रों से एक स्वर्णिम प्रकाश-पुंज निकला। यह प्रकाश इतना तीव्र था कि पूरा ब्रह्मांड चमक उठा। यही प्रकाश-पुंज कालांतर में सूर्यदेव के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। यजुर्वेद में इस घटना का वर्णन इन शब्दों में है:
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत
(उस विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा और आँखों से सूर्य का जन्म हुआ)
इसीलिए सूर्यदेव को सूर्य नारायण कहा जाता है, क्योंकि वे स्वयं भगवान नारायण (विष्णु) के नेत्रों से प्रकट हुए हैं।
त्रेता युग के प्रारंभिक काल की बात है। उस समय पृथ्वी पर माली और सुमाली नामक दो भयंकर दैत्य राज कर रहे थे। ये दोनों भाई अत्यंत शक्तिशाली थे और उन्होंने अपने अत्याचारों से तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। देवताओं को भी उनके सामने परास्त होना पड़ा था।
स्वर्ग से निकाले गए सभी देवता अपनी माता अदिति के पास पहुँचे। अदिति ऋषि कश्यप की पत्नी थीं और सभी देवताओं की माता मानी जाती थीं। जब उन्होंने अपने पुत्रों की दुर्दशा देखी तो उनका हृदय करुणा से भर उठा।
अदिति ने निश्चय किया कि वे सूर्यदेव की तपस्या करेंगी और उनसे अपने पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान माँगेंगी। वे हिमालय की सबसे ऊँची चोटी पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं। कई वर्षों तक अदिति ने अत्यंत कठोर तप किया। वे दिन भर धूप में खड़ी रहतीं और रात भर शीत में। केवल फल-फूल पर निर्वाह करतीं, कभी-कभी तो कई दिनों तक निराहार भी रहतीं। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं सूर्यदेव प्रकट हुए।
जब सूर्यदेव अदिति के सामने प्रकट हुए तो उनका तेज इतना प्रखर था कि अदिति अपनी आँखें नहीं खोल सकीं। सूर्यदेव ने कहा, "माते अदिति! मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ। माँगो, क्या वरदान चाहिए?"
अदिति ने हाथ जोड़कर कहा, "हे भगवान! मेरे पुत्र देवता दैत्यों के अत्याचार से त्रस्त हैं। कृपया आप मेरे गर्भ से जन्म लेकर उनकी रक्षा करें।"
सूर्यदेव ने तथास्तु कहा और अंतर्ध्यान हो गए।
अदिति ने सूर्यदेव को गर्भ में धारण किया। गर्भावस्था के दौरान वे प्रतिदिन कठोर व्रत करतीं और सूर्य उपासना में लीन रहतीं। एक दिन उनके पति कश्यप ऋषि ने समझाया कि इतने कठोर व्रत गर्भस्थ शिशु के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
तब अदिति ने अपनी योग शक्ति से गर्भस्थ शिशु को अंड रूप में निकाला। यह अंड सुनहरे प्रकाश से दमक रहा था। जैसे ही यह अंड फूटा, उसमें से एक दिव्य तेज-पुंज निकला जो आकाश में जाकर स्थापित हो गया। इस तेज के प्रकट होते ही पूरा संसार प्रकाशमान हो उठा। दैत्य माली-सुमाली इस प्रकाश की तीव्रता से घबराकर भाग खड़े हुए। देवताओं को पुनः स्वर्ग मिल गया।
मार्तंड का अर्थ है "माता के अंड से जन्मा" - इसीलिए सूर्यदेव का एक नाम मार्तंड है। अदिति के पुत्र होने के कारण सूर्य का दूसरा नाम आदित्य भी है।
देवताओं के शिल्पकार विश्वकर्मा की एक अत्यंत सुंदर पुत्री थी जिसका नाम संज्ञा था। वह न केवल रूप में अप्रतिम थी बल्कि गुणों में भी अतुलनीय थी। जब संज्ञा का विवाह योग्य आयु हुई तो विश्वकर्मा ने उसका विवाह सूर्यदेव से कर दिया।
विवाह के प्रारंभिक दिन अत्यंत सुखमय थे। सूर्यदेव अपनी पत्नी संज्ञा से अत्यधिक प्रेम करते थे। संज्ञा से उनके तीन पुत्र हुए - वैवस्वत मनु, यमराज और यमुना।
परंतु धीरे-धीरे एक समस्या उत्पन्न हुई। सूर्यदेव का प्राकृतिक तेज इतना प्रखर था कि संज्ञा उसे सहन नहीं कर पा रही थी। दिन-प्रतिदिन वह कमजोर होती जा रही थी। उसका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था और वह हमेशा थकी-थकी रहने लगी।
अंततः संज्ञा ने निर्णय लिया कि वह घर छोड़कर तपस्या के लिए चली जाएगी। लेकिन वह सूर्यदेव को अकेला भी नहीं छोड़ना चाहती थी। उसने अपनी योग माया से अपनी एक छाया (प्रतिच्छाया) बनाई। यह छाया बिल्कुल संज्ञा के समान दिखती थी।
संज्ञा ने छाया से कहा, "तुम यहाँ रहकर मेरे पति और बच्चों की सेवा करना। मैं तपस्या करने जा रही हूँ। जब तक मैं वापस नहीं आऊँ, तब तक तुम मेरा स्थान सँभालना।"
छाया ने संज्ञा का स्थान लिया और सूर्यदेव की सेवा करने लगी। सूर्यदेव को पता ही नहीं चला कि यह उनकी वास्तविक पत्नी नहीं है। छाया से सूर्यदेव के तीन और संतानें हुईं - शनि, तपति और भद्रा।
समय बीतने के साथ छाया के व्यवहार में परिवर्तन आने लगा। वह संज्ञा के पुत्रों से उतना प्रेम नहीं करती थी जितना अपनी संतान से करती थी। विशेष रूप से यमराज के साथ उसका व्यवहार कठोर हो गया था।
एक दिन यमराज और छाया के बीच विवाद हुआ। क्रोध में छाया ने यमराज को श्राप दे दिया। यमराज को यह बात अजीब लगी क्योंकि कोई माता अपने पुत्र को श्राप नहीं देती। उसने यह बात अपने पिता सूर्यदेव को बताई।
सूर्यदेव ने अपनी दिव्य दृष्टि से सब कुछ जान लिया। उन्हें पता चल गया कि यह संज्ञा नहीं बल्कि उसकी छाया है। उन्होंने छाया से पूछा तो उसने सारी सच्चाई बता दी।
सूर्यदेव ने संज्ञा को खोजना शुरू किया। वह उत्तराखंड के कुरुक्षेत्र में घोड़ी का रूप धारण करके तपस्या कर रही थी। जब सूर्यदेव उसके पास पहुँचे तो उन्होंने घोड़े का रूप धारण किया।
संज्ञा से सूर्यदेव के अश्विनी कुमार नामक दो पुत्र हुए - नासत्य और दस्त्र। ये दोनों आयुर्वेद के देवता माने जाते हैं।
अंततः विश्वकर्मा ने अपने दामाद सूर्यदेव के तेज को कम करने का उपाय किया। उन्होंने सूर्यदेव के शरीर के अतिरिक्त तेज को काट दिया। इस कटे हुए तेज से उन्होंने विष्णु का सुदर्शन चक्र, शिव का त्रिशूल और अन्य दिव्य अस्त्र बनाए।
इसके बाद संज्ञा सूर्यदेव के साथ सुखपूर्वक रहने लगी। छाया को भी सम्मान के साथ महल में स्थान मिला और वह भी सूर्यदेव की दूसरी पत्नी के रूप में प्रतिष्ठित हुई।
द्वापर युग के अंत में लंकापति रावण के नाना सुमाली और उसके भाई माली दो महाशक्तिशाली दैत्य थे। दोनों भाइयों ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी। प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि जब भी वे संकट में होंगे, शिव स्वयं उनकी रक्षा के लिए आएंगे।
इस वरदान के बल पर दोनों भाइयों ने पृथ्वी पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। वे निर्दोष लोगों को सताते, यज्ञों में विघ्न डालते और धर्म का नाश करते। उनके अत्याचार से त्रस्त होकर देवता और ऋषि-मुनि सूर्यदेव के पास सहायता माँगने पहुँचे।
सूर्यदेव ने देवताओं और ऋषियों की पुकार सुनी। वे जानते थे कि यह धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध है। उन्होंने संकल्प लिया कि वे इन दैत्यों के अत्याचार को समाप्त करेंगे।
सूर्यदेव अपने दिव्य रथ पर सवार होकर सुमाली और माली से युद्ध करने पहुँचे। उनका सप्तअश्व रथ आकाश में चमक रहा था और उनके हाथ में दिव्य अस्त्र थे।
सुमाली और माली अत्यंत शक्तिशाली योद्धा थे। उन्होंने सूर्यदेव से घमासान युद्ध किया। तीनों लोकों में इस युद्ध की गर्जना सुनाई दे रही थी। सूर्यदेव के तेज से दैत्यों के अस्त्र भस्म हो रहे थे।
जब सुमाली और माली को लगा कि वे हार रहे हैं तो उन्होंने अपने वरदान का प्रयोग किया। उन्होंने भगवान शिव को पुकारा: "हे भोलेनाथ! आपने हमें वचन दिया था कि संकट में आप हमारी रक्षा करेंगे। अब हमारी रक्षा करें!"
वरदान में बँधे होने के कारण भगवान शिव को आना पड़ा। लेकिन वे भी जानते थे कि सुमाली और माली अधर्मी हैं और सूर्यदेव धर्म की रक्षा कर रहे हैं। यह उनके लिए अत्यंत कठिन स्थिति थी।
शिव ने सूर्यदेव से कहा, "हे सूर्यदेव! मैं इन दैत्यों को वरदान दे चुका हूँ। कृपया अपना आक्रमण रोक दें।"
सूर्यदेव ने उत्तर दिया, "हे महादेव! ये दैत्य धर्म का नाश कर रहे हैं। निर्दोष प्राणियों को सता रहे हैं। मैं अधर्म का साथ नहीं दे सकता।"
धर्म-संकट में फँसे शिव ने अंततः निर्णय लिया। वे अपने वरदान की रक्षा करते हुए भी धर्म का साथ देना चाहते थे। उन्होंने अपना प्रसिद्ध त्रिशूल उठाया और सूर्यदेव पर प्रहार किया।
त्रिशूल की मार से सूर्यदेव के तीन टुकड़े हो गए। यह इतना भयानक दृश्य था कि पूरा ब्रह्मांड काँप उठा। सूर्यदेव के तीन टुकड़े अलग-अलग स्थानों पर गिरे:
जब सूर्यदेव के पिता कश्यप ऋषि को अपने पुत्र की यह दशा पता चली तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने भगवान शिव को श्राप दिया:
"हे महादेव! जिस प्रकार आपने मेरे पुत्र पर त्रिशूल प्रहार किया है, उसी प्रकार एक दिन आपको भी अपने पुत्र पर त्रिशूल चलाना पड़ेगा!"
यही श्राप आगे चलकर पूरा हुआ जब भगवान शिव को अपने पुत्र गणेश का मस्तक काटना पड़ा था।
कश्यप ऋषि के श्राप के बाद भगवान शिव को अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से सूर्यदेव को पुनः जीवित कर दिया। सूर्यदेव के तीनों टुकड़े फिर से जुड़ गए और वे पूर्ण स्वास्थ्य में वापस आ गए।
इन तीन स्थानों पर आज भी प्रसिद्ध सूर्य मंदिर हैं जो इस घटना के साक्षी हैं।
महाभारत काल में राजा शूरसेन की पुत्री कुंती को बचपन में दुर्वासा ऋषि ने एक विशेष मंत्र दिया था। इस मंत्र से वह किसी भी देवता का आह्वान कर सकती थी और उससे संतान प्राप्त कर सकती थी।
एक दिन कौतूहलवश किशोरावस्था में कुंती ने सूर्यदेव का आह्वान किया। सूर्यदेव तुरंत प्रकट हुए और बोले, "हे कुंती! तुमने मुझे क्यों बुलाया है?" कुंती घबरा गई और कहा, "हे देव! मैंने तो केवल मंत्र की शक्ति देखने के लिए आपको बुलाया था।" सूर्यदेव ने कहा, "देवताओं का आह्वान व्यर्थ नहीं जाता। मुझे तुम्हें एक पुत्र देना होगा।"
सूर्यदेव के आशीर्वाद से कुंती के गर्भ से एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। यह बालक जन्म से ही कवच और कुंडल धारण करके पैदा हुआ था। कुंती अविवाहित थी, इसलिए लोक-लाज के भय से उसने इस बालक को एक टोकरी में रखकर गंगा नदी में बहा दिया।
इस बालक को अधिरथ नामक सारथी और उसकी पत्नी राधा ने पाला। इसीलिए इसका नाम राधेय पड़ा, लेकिन कान के पास कुंडल होने के कारण इसे कर्ण भी कहा जाने लगा।
कर्ण प्रतिदिन प्रातःकाल गंगा नदी में स्नान करता और फिर सूर्यदेव की उपासना करता। वह कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्यदेव को अर्घ्य देता और निम्नलिखित मंत्र का जाप करता:
ॐ सूर्याय नमः, ॐ आदित्याय नमः, ॐ मार्तण्डाय नमः
उसकी यह उपासना इतनी नियमित और श्रद्धापूर्ण थी कि सूर्यदेव स्वयं प्रसन्न हो गए। वे प्रतिदिन कर्ण के सामने प्रकट होकर उसे आशीर्वाद देते।
एक दिन सूर्यदेव ने कर्ण से कहा, "पुत्र! तुम्हारी भक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें वासवी शक्ति नामक दिव्य अस्त्र देता हूँ। यह अस्त्र अमोघ है और इसका प्रयोग केवल एक बार हो सकता है।"
इसके अतिरिक्त सूर्यदेव ने कर्ण को जन्म से प्राप्त कवच-कुंडल की महत्ता बताई: "ये कवच-कुंडल तुम्हें अजेय बनाते हैं। जब तक ये तुम्हारे शरीर पर हैं, कोई भी अस्त्र तुम्हारा वध नहीं कर सकता।"
महाभारत युद्ध से पहले इंद्र को चिंता हुई कि कर्ण के पास कवच-कुंडल हैं तो अर्जुन की हार निश्चित है। उन्होंने एक ब्राह्मण का वेष धारण किया और कर्ण के पास दान माँगने गए। कर्ण अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। इंद्र ने कहा, "हे वीर! मुझे तुम्हारे कवच-कुंडल चाहिए।"
सूर्यदेव ने कर्ण को स्वप्न में चेतावनी दी थी कि इंद्र छल करने आएंगे। फिर भी कर्ण ने अपने सिद्धांतों का पालन करते हुए कहा, "आप जो माँग रहे हैं, वह मेरे प्राणों के समान है। फिर भी मैं आपकी इच्छा पूरी करूँगा।"
कर्ण ने अत्यंत पीड़ा सहते हुए अपने शरीर से कवच-कुंडल काटकर इंद्र को दे दिए। इंद्र कर्ण की दानवीरता से प्रभावित होकर उसे वासवी शक्ति का अस्त्र दे गए।
महाभारत युद्ध में जब कर्ण का वध हुआ तो उसकी आत्मा सीधे सूर्यदेव के पास गई। सूर्यदेव ने अपने इस महान भक्त का स्वागत किया और उसे अपने लोक में स्थान दिया।
कहा जाता है कि कर्ण की मृत्यु के दिन सूर्यदेव इतने दुखी थे कि उनका तेज मंद पड़ गया था और पूरे दिन आकाश में बादल छाए रहे।
द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवती का एक पुत्र था जिसका नाम साम्ब था। वह दिखने में बिल्कुल अपने पिता कृष्ण के समान था - वही सुंदर मुखाकृति, वही आकर्षक व्यक्तित्व।
साम्ब में अपने रूप का अभिमान था। वह अपनी सुंदरता का गलत फायदा उठाकर कई युवतियों को भ्रम में डालता था। वह उनसे झूठा प्रेम का नाटक करता और फिर उन्हें छोड़ देता था।
जब भगवान कृष्ण को अपने पुत्र के इस दुष्कर्म का पता चला तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। उन्होंने पहले साम्ब को समझाने की कोशिश की, लेकिन साम्ब नहीं माना।
अंततः क्रोधित कृष्ण ने अपने पुत्र को श्राप दिया: "तूने अपने रूप का दुरुपयोग किया है। अब तू कोढ़ी हो जा! तेरे शरीर पर घाव हो जाएं और तेरी सुंदरता नष्ट हो जाए!"
श्राप के तुरंत बाद साम्ब के शरीर पर कोढ़ के घाव निकल आए। उसकी सुंदरता पूरी तरह नष्ट हो गई।
श्राप मिलने के बाद साम्ब को अपनी गलती का एहसास हुआ। वह अपने पिता के पास गया और क्षमा माँगी। कृष्ण ने कहा, "श्राप वापस नहीं हो सकता, लेकिन इससे मुक्ति का उपाय है। तुम सूर्यदेव की तपस्या करो।" कृष्ण ने आगे समझाया: "सूर्यदेव ही इस संसार की चेतना हैं। वे सभी रोगों के नाशक हैं। उनकी कृपा से ही तुम कोढ़ से मुक्त हो सकते हो।"
साम्ब ने अपने पिता के निर्देशानुसार सूर्यदेव की तपस्या शुरू की। वह भारत के विभिन्न पवित्र स्थानों पर गया और कठोर तप किया। वह कुरुक्षेत्र में गया जहाँ सूर्य उपासना की प्राचीन परंपरा थी। वहाँ उसने चंद्रभागा नदी के किनारे खड़े होकर दिन-रात सूर्यदेव का ध्यान किया।
कई वर्षों तक निरंतर तपस्या करने के बाद सूर्यदेव प्रसन्न हुए और साम्ब के सामने प्रकट हुए।
सूर्यदेव ने साम्ब से कहा, "पुत्र! तुम्हारी तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ। तुमने अपने अपराधों के लिए सच्चा पश्चाताप किया है। मैं तुम्हें कोढ़ से मुक्त करता हूँ।"
सूर्यदेव के आशीर्वाद से साम्ब के शरीर के सभी घाव भर गए। वह पूर्णतः स्वस्थ हो गया।
कृतज्ञता से भरे साम्ब ने सूर्यदेव के लिए कई मंदिर बनवाए। उसने बिहार के देवार्क में एक भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण कराया। यह मंदिर आज भी प्रसिद्ध है और यहाँ छठ पूजा के अवसर पर लाखों श्रद्धालु आते हैं।
साम्ब ने अपना शेष जीवन सूर्य उपासना और समाज सेवा में व्यतीत किया। वह एक महान सूर्यभक्त के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
सूर्यदेव के कई नाम हैं, उनमें से एक नाम विवस्वान भी है। इसी रूप में सूर्यदेव ने मानव सभ्यता की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
जब पृथ्वी पर प्रलय आई और सारी मानव सभ्यता नष्ट हो गई, तब सूर्यदेव ने विवस्वान रूप में एक नए मनु को जन्म दिया। इन्हें वैवस्वत मनु कहा गया क्योंकि ये विवस्वान (सूर्य) के पुत्र थे।
वैवस्वत मनु ने मानव जाति का पुनः निर्माण किया। उन्होंने नैतिकता, धर्म और न्याय के नियम स्थापित किए। मनुस्मृति इन्हीं के नाम पर है।
वैवस्वत मनु के ज्येष्ठ पुत्र का नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु एक महान राजा बने और उन्होंने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया। इक्ष्वाकु से ही इक्ष्वाकु वंश या सूर्यवंश की स्थापना हुई।
इक्ष्वाकु के वंशज कई महान राजा हुए:
इसी सूर्यवंश में आगे चलकर महाराज दशरथ हुए। दशरथ के चार पुत्र हुए - राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। भगवान राम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे, लेकिन उन्होंने सूर्यवंश में जन्म लेकर इस वंश को गौरवान्वित किया। राम को सूर्यवंशी कहा जाता है।
रामायण में कई स्थानों पर श्रीराम की सूर्य उपासना का वर्णन मिलता है। जब राम लंका विजय के लिए जा रहे थे तो ऋषि अगस्त्य ने उन्हें आदित्य हृदय स्तोत्र की शिक्षा दी थी।
इस स्तोत्र का पाठ करने के बाद श्रीराम की शक्ति बढ़ गई और उन्होंने रावण का वध किया। आदित्य हृदय स्तोत्र आज भी सूर्य उपासना का सबसे प्रभावशाली मंत्र माना जाता है।
वैदिक संस्कृति में सूर्यदेव की ये कथाएँ न केवल धार्मिक मान्यताओं को दर्शाती हैं बल्कि जीवन के गूढ़ सत्यों को भी उजागर करती हैं। प्रत्येक कथा में छिपा है एक संदेश:
आज भी जब हम प्रातःकाल सूर्योदय देखते हैं तो ये सभी कथाएँ हमारे मन में जीवंत हो उठती हैं। सूर्यदेव न केवल प्रकाश और ऊर्जा देते हैं बल्कि जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं - "तमसो मा ज्योतिर्गमय" (अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो)।
अनुभव: 27
इनसे पूछें: विवाह, करियर, संपत्ति
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि., ओडि
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