By पं. अमिताभ शर्मा
प्रेम, आस्था और साहस से लिखी गई अमर नारी शक्ति की दास्तां
भारत की धरती पर कई प्रेम कहानियाँ जन्मी हैं, लेकिन सावित्री और सत्यवान की गाथा कुछ अलग है। यह सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं - यह एक स्त्री के साहस, भक्ति, समर्पण और चातुर्य की दिव्य कथा है। वट सावित्री व्रत उसी अमर प्रेम की स्मृति है, जब एक पत्नी ने अपने पति के प्राण मृत्यु से वापस ले लिए अपने विश्वास, अपने व्रत और अपने प्रेम के बल पर।
आइए, इस कथा को समझें - विस्तार से, भावनाओं के साथ।
मद्र देश के राजा अश्वपति और रानी मालवती के जीवन में एक ही कमी थी - संतान नहीं थी। वर्षों की तपस्या के बाद उन्होंने देवी सावित्री की आराधना की। देवी प्रसन्न हुईं और एक दिव्य कन्या का आशीर्वाद दिया।
जब वह कन्या जन्मी, तब आकाशवाणी हुई - “यह कन्या अपनी तेजस्विता, धर्मनिष्ठा और प्रेम से इतिहास रचेगी।”
उसका नाम रखा गया "सावित्री"।
सावित्री जब विवाह योग्य हुई, तो कोई भी राजकुमार उसके तेज, बुद्धि और सौंदर्य के सामने खड़ा नहीं हो सका। पिता ने कहा - “बेटी, अब तू स्वयं योग्य वर की खोज कर। तेरा निर्णय ही ब्रह्मवाक्य होगा।”
सावित्री अकेली निकली, और एक वन में उसे मिला - सत्यवान।
सत्यवान - तेजस्वी, परिश्रमी, धर्मनिष्ठ और अपने अंधे पिता की सेवा में रत। जब सावित्री ने पहली बार उसे देखा, उसकी आँखों में चमक आ गई। “यही है मेरा जीवनसाथी,” उसने मन में कहा।
पर जब वह लौटकर आई और पिता को बताया, तो राजपुरोहित ने कहा - “राजकुमारी, सत्यवान अल्पायु है। एक वर्ष के भीतर उसकी मृत्यु निश्चित है।”
सावित्री ने शांत भाव से उत्तर दिया - “एक बार जिसे मैंने पति मान लिया, वही मेरे लिए सदा पति है। जीवन हो या मृत्यु - मेरा धर्म उसके साथ है।”
विवाह हुआ। सावित्री वन में सत्यवान और सास-ससुर के साथ रहने लगी। वह जानती थी कि एक वर्ष बाद मृत्यु आने वाली है। उसने दिन गिनने शुरू कर दिए।
जब वह दिन पास आया, उसने तीन दिन का उपवास रखा। शरीर थकने लगा, पर मन दृढ़ था।
अमावस्या का दिन - वट सावित्री व्रत का दिन। सावित्री ने साड़ी के पल्लू को कसकर बांधा, माथे पर सिंदूर सजाया और सत्यवान के साथ वट वृक्ष के नीचे गई।
सत्यवान पेड़ काटते हुए अचानक थक गया। “सावित्री… मेरी आँखों के सामने अंधेरा छा रहा है…” - वह उसकी गोद में गिर पड़ा। सावित्री जान गई - यही वो क्षण है।
अचानक वहां एक काला, ऊँचा तेजस्वी पुरुष प्रकट हुआ - यमराज। उन्होंने सत्यवान के प्राण निकाले और दक्षिण दिशा की ओर चलने लगे। सावित्री ने धीरे से अपने कदम बढ़ाए। यमराज बोले - “पतिव्रता स्त्री! तुम यहाँ तक आई, लेकिन अब लौट जाओ। यह धर्म का नियम है।”
सावित्री ने कहा - “जहाँ मेरे पति जाएँ, वहाँ मेरा धर्म मुझे रोक नहीं सकता। मुझे कुछ नहीं चाहिए… बस साथ चलने दो।”
यमराज ने प्रसन्न होकर कहा - “मांगो कोई वर, पर सत्यवान के प्राण मत मांगना।”
सावित्री ने माँगा
यमराज रुके। कुछ क्षणों तक मौन रहा। फिर मुस्कराए। “सावित्री… तुमने चतुराई से, धर्म से और प्रेम से मृत्यु को पराजित कर दिया। तुम्हें सत्यवान वापिस मिलता है।”
सत्यवान ने आँखें खोलीं। सावित्री की आँखों में आँसू थे, पर आज वो आँसू दुख के नहीं - विजय के थे। जब वे घर लौटे, अंधे ससुर ने आँखों से दर्शन किया और खोया हुआ राज्य उन्हें वापिस मिला।
अनुभव: 32
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