By पं. नरेंद्र शर्मा
जानिए रथ यात्रा के पीछे छुपी प्रेम, वियोग और पुनर्मिलन की अद्वितीय पौराणिक कथा
पुरी की जगन्नाथ रथ यात्रा केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि यह प्रेम, वियोग, पुनर्मिलन और मानवता के गहरे भावों की अमर गाथा है। यह कथा हमें कृष्ण, राधा, बलराम, सुभद्रा और समस्त भक्तों के हृदय से जोड़ती है-जहां हर भावना, हर घटना, हर प्रतीक में जीवन का गूढ़ संदेश छुपा है।
द्वापर युग में जब कृष्ण को मथुरा छोड़कर द्वारका जाना पड़ा, वृंदावन की गोपियाँ, जिनका जीवन कृष्णमय था, असहनीय विरह में डूब गईं। कृष्ण ने वादा किया था कि वे शीघ्र लौटेंगे, पर सौ वर्षों तक वे लौटे नहीं। कृष्ण के रथ को रोकने के लिए गोपियाँ रथ के पहियों के आगे लेट गईं, उनकी आँखों में आँसू, हृदय में पीड़ा और मन में एक ही पुकार-"हे कृष्ण, हमें छोड़कर मत जाओ!" अक्रूर, जो रथ के सारथी थे, असहज हो गए। गोपियाँ रथ की रस्सियाँ पकड़कर बैठ गईं, मानो वे कृष्ण को अपने प्रेम के बंधन में बाँधना चाहती हों। कृष्ण ने गोपियों को सांत्वना दी, "मुझे धर्म के लिए जाना ही होगा, परंतु मेरा हृदय सदा वृंदावन में ही रहेगा।" यह दृश्य केवल प्रेम का नहीं, बल्कि त्याग, समर्पण और ईश्वर के प्रति भक्त की गहन तड़प का प्रतीक है।
समय बीता। सूर्य ग्रहण के अवसर पर समस्त भारतवर्ष के लोग कुरुक्षेत्र में स्नान के लिए एकत्र हुए। वृंदावन की गोपियाँ, राधा, नंद बाबा, यशोदा माता-सभी वहाँ पहुँचे। कृष्ण और बलराम भी वहाँ थे, परंतु अब वे द्वारका के राजा थे-राजसी वस्त्र, मुकुट, रत्नों से सजे। राधा ने जब कृष्ण को देखा, तो उनका मन विचलित हो गया। "क्या ये वही मेरे कृष्ण हैं, जो बांसुरी बजाते थे, जो मेरे लिए जंगली फूलों की माला लाते थे?" राधा की आँखों में आँसू थे, कृष्ण की आँखों में भीगती स्मृतियाँ। कृष्ण ने राधा से कहा, "राधे, मेरा बाहरी रूप भले बदल गया हो, परंतु मेरा हृदय आज भी तुम्हारे प्रेम से ही धड़कता है।" यह संवाद केवल दो प्रेमियों का नहीं, आत्मा और परमात्मा के मिलन का गूढ़ रहस्य है-जहाँ बाहरी भेद मिट जाते हैं, केवल प्रेम शेष रह जाता है।
कुरुक्षेत्र की भीड़ में, भक्तों ने कृष्ण, बलराम और सुभद्रा को रथ पर बैठाया। गोपियाँ, ग्वाले, वृंदावनवासी, सभी ने मिलकर रथ की रस्सियाँ थामीं। रथ खींचते समय भक्तों के मुख से "जय जगन्नाथ" और "हरे कृष्ण" के गगनभेदी नारे गूंज उठे। यह केवल एक यात्रा नहीं थी, बल्कि हर भक्त की उस उत्कट इच्छा का प्रतीक थी-"हम अपने प्रिय को अपने हृदय के वृंदावन में फिर से लाना चाहते हैं।" गुंडिचा मंदिर, जिसे 'मौसी का घर' कहा जाता है, उसी वृंदावन का प्रतीक है-जहाँ कृष्ण, बलराम और सुभद्रा नौ दिन तक विश्राम करते हैं, और हर भक्त को यह अनुभूति होती है कि ईश्वर स्वयं उसके घर पधारे हैं।
रथ यात्रा में तीन रथ-जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा-तीन आयामों का प्रतिनिधित्व करते हैं:
रथ की रस्सियाँ भक्त के प्रेम, प्रयास और समर्पण की प्रतीक हैं। रथ के पहिए समय के चक्र, जीवन के उतार-चढ़ाव और कर्म के फल का संकेत देते हैं। रथ यात्रा के अंत में रथों का तोड़ा जाना, हमें याद दिलाता है कि भौतिक संसार नश्वर है, केवल ईश्वर और प्रेम शाश्वत हैं।
जगन्नाथ रथ यात्रा की कथा केवल इतिहास नहीं, हर भक्त के हृदय की व्यथा, आशा, प्रेम और विश्वास की जीवंत अभिव्यक्ति है। यह यात्रा हमें सिखाती है कि जब हम अपने हृदय के रथ को भक्ति, प्रेम और सेवा की रस्सियों से खींचते हैं, तो ईश्वर स्वयं हमारे जीवन में उतर आते हैं। रथ यात्रा का हर दृश्य-रथ की झंकार, भक्तों की पुकार, पुष्पवर्षा, आरती, भजन-सब कुछ आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का माध्यम है।
जगन्नाथ रथ यात्रा की यह विस्तृत कथा हमें यह संदेश देती है कि प्रेम, समर्पण और सेवा से ही जीवन का वास्तविक सार प्राप्त किया जा सकता है। यह पर्व केवल उत्सव नहीं, बल्कि आत्मा के परमात्मा से मिलन की यात्रा है-जहाँ हर भक्त, हर रस्सी, हर आंसू, हर मुस्कान में ईश्वर की झलक मिलती है।
अनुभव: 32
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