By अपर्णा पाटनी
जानिए राजा मान्धाता की प्रेरक कथा, देवशयनी एकादशी का महत्व और आज के जीवन में इसकी प्रासंगिकता
देवशयनी एकादशी का पर्व भारतीय संस्कृति में केवल एक तिथि नहीं, बल्कि श्रद्धा, संयम और भक्ति का अद्वितीय संदेश है। यह वह दिन है जब साधक अपने भीतर की शक्ति को पहचानता है और जीवन के हर संकट में ईश्वर की कृपा की अनुभूति करता है। इस कथा में छुपा संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना प्राचीन काल में था।
पुराणों के अनुसार, राजा मान्धाता एक धर्मनिष्ठ और प्रजा-वत्सल शासक थे। उनके राज्य में एक बार भयंकर अकाल पड़ गया। न खेतों में अन्न उगा, न नदियों में जल रहा। प्रजा भूख और प्यास से व्याकुल थी। राजा ने यज्ञ, दान और अनेक धार्मिक अनुष्ठान किए, किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। जब हर उपाय विफल हो गए, तब वे महर्षि अंगिरा की शरण में पहुंचे।
महर्षि अंगिरा ने राजा को देवशयनी एकादशी का व्रत रखने की सलाह दी। उन्होंने कहा, "राजन, यह व्रत केवल उपवास नहीं, बल्कि श्रद्धा, संयम और भक्ति का साधन है। यदि आप सच्चे मन से इसका पालन करेंगे, तो आपके राज्य में सुख-शांति और समृद्धि लौट आएगी।"
राजा मान्धाता ने पूरे विधि-विधान और श्रद्धा से देवशयनी एकादशी का व्रत रखा। उन्होंने भगवान विष्णु की पूजा की, रात्रि जागरण किया और प्रजा के कल्याण की प्रार्थना की। जैसे ही व्रत पूर्ण हुआ, आकाश में बादल घिर आए और मूसलाधार वर्षा होने लगी। सूखे खेत फिर से हरे हो गए, नदियां जल से भर गईं और प्रजा के चेहरे पर मुस्कान लौट आई।
इस कथा का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि व्यावहारिक भी है। जब हम अपने जीवन में संकटों का सामना करते हैं, तो यह कथा हमें सिखाती है कि आस्था, संयम और भक्ति से हर कठिनाई दूर हो सकती है। यह पर्व आत्मचिंतन, सेवा और अनुशासन का संदेश देता है।
देवशयनी एकादशी की व्रत कथा हमें यह सिखाती है कि जब मन में सच्ची श्रद्धा और कर्म में पवित्रता हो, तो ईश्वर की कृपा से जीवन में सुख-शांति और समृद्धि अवश्य आती है। यह पर्व हर साधक के लिए नई शुरुआत, आंतरिक शक्ति और दिव्यता की अनुभूति का अवसर है।
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