By पं. अभिषेक शर्मा
जानें विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र का दिव्य महत्व, जप विधि, लाभ और आत्मिक शांति पाने के गूढ़ रहस्य

मन, कर्म और आत्मा की शुद्धि का अद्भुत मार्ग भगवान विष्णु के सहस्र नामों में निहित है। विष्णु सहस्रनाम केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि ध्यान, जप, भक्ति और आत्मचिंतन का ऐसा गहन साधन है जो साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की ओर संतुलित रूप से अग्रसर करता है।
हिंदू धर्म में ब्रह्मा, विष्णु और महेश सृष्टि, पालन और संहार की त्रिमूर्ति के रूप में माने जाते हैं। इनमें भगवान विष्णु को पालनकर्ता कहा गया है जो सृष्टि में संतुलन, संरक्षण और व्यवस्था को बनाकर रखते हैं। उनकी कृपा से न केवल सांसारिक जीवन सुचारु होता है, बल्कि आत्मा को भी आध्यात्मिक ऊंचाइयाँ प्राप्त होती हैं। इन्हीं भगवान विष्णु की महिमा का गान करने के लिए रचा गया विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र सनातन परंपरा के महानतम और लोकप्रिय स्तोत्रों में से एक है।
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र महाभारत के अनुशासन पर्व में वर्णित है। भीष्म पितामह ने युद्धभूमि पर बाणशैया पर स्थित अवस्था में धर्मराज युधिष्ठिर को यह उपदेश दिया था।
कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद युधिष्ठिर धर्म, कर्तव्य, पाप-पुण्य, जीवन और मोक्ष से संबंधित गहन प्रश्नों से व्याकुल थे। श्रीकृष्ण उन्हें शांतनुनंदन भीष्म के पास ले गए, जहाँ भीष्म ने भगवान विष्णु के एक हजार दिव्य नामों का उच्चारण किया। इन्हीं नामों का संकलन “विष्णु सहस्रनाम” के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिसे वेदव्यास ने महाभारत में लिपिबद्ध किया। यह स्तोत्र काल, स्थान और परिस्थिति से परे शाश्वत और सर्वकालिक माना जाता है।
“सहस्रनाम” का अर्थ है हजार नाम। विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र में भगवान विष्णु के सहस्र नामों के माध्यम से उनके गुण, शक्तियाँ, लीला और स्वरूप का बखान किया गया है। यह केवल एक स्तोत्र नहीं, बल्कि एक गहन ध्यान, स्मरण और आत्मचिंतन का माध्यम है, जो ईश्वर को केवल बाहर नहीं, भीतर भी प्रकट करता है।
ॐ श्री परमात्मने नमः ॥ अथ श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् ॥ यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् । विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे । नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते । अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे । [ वैशम्पायन उवाच ] श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः । युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥1॥ [ युधिष्ठिर उवाच ] किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् । स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥2॥ को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः । किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥3॥ [ भीष्म उवाच ] जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् । स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥4॥ तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् । ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥5॥ अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् । लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥6॥ ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् । लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥7॥ एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः । यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥8॥ परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः । परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥9॥ पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् । दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥10॥ यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे । यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥11॥ तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते । विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ॥12॥ यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः । ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥13॥ अर्थ: ॐ श्री परमात्मने नमः। अब श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र आरंभ होता है जिसके केवल स्मरण से ही मनुष्य जन्म और संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है, उस प्रभु विष्णु को नमस्कार है। समस्त प्राणियों के आदि स्वरूप, पृथ्वी को धारण करने वाले, अनेकों रूपों में प्रकट होने वाले प्रभु विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ। [वैशम्पायन बोले] धर्मों को पूर्ण रूप से और सभी प्रकार से पवित्र करने वाले उन वचनों को सुनने के बाद, युधिष्ठिर ने शांतनु पुत्र भीष्म से पुनः प्रश्न किया। [युधिष्ठिर ने पूछा] इस संसार में एकमात्र कौन सा देवता है? एकमात्र परम लक्ष्य क्या है? मनुष्य किसकी स्तुति करके, किसकी पूजा करके, कल्याण प्राप्त कर सकते हैं? सभी धर्मों में सबसे उत्तम धर्म क्या है? और किस जप से जीव जन्म और संसार के बंधन से मुक्त हो सकता है? [भीष्म बोले] जो जगत के स्वामी, देवताओं के भी देवता, अनंत और श्रेष्ठ पुरुष हैं, मनुष्य को चाहिए कि वे सदा उठकर उन्हें हजार नामों से स्तुति करें। जो पुरुष नित्य उन्हें भक्ति से पूजता है, ध्यान करता है, स्तुति करता है, नमस्कार करता है, वह यज्ञ करने वाला भी उसी की उपासना करता है। जो विष्णु आदि और अंत से रहित हैं, समस्त लोकों के स्वामी हैं, लोकों के अधिपति हैं - उनकी नित्य स्तुति करने से मनुष्य सभी दुखों से परे हो जाता है। जो ब्रह्मवेत्ता, सभी धर्मों को जानने वाले, लोकों की कीर्ति को बढ़ाने वाले, लोकों के स्वामी, महान अद्भुत और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का कारण हैं - वही मेरी दृष्टि में सभी धर्मों में श्रेष्ठ धर्म है कि मनुष्य कमलनेत्र भगवान की भक्ति से स्तुतियों द्वारा सदा पूजा करे। जो परम तेजस्वी, परम तपस्वी, परम ब्रह्म और परम लक्ष्य हैं - जो पवित्रों में सबसे पवित्र, मंगलों में सबसे मंगलकारी, देवताओं में दैवतस्वरूप और समस्त प्राणियों के अविनाशी पिता हैं। जिनसे समस्त प्राणी आदि युग के आरंभ में उत्पन्न होते हैं और युग के अंत में उन्हीं में लीन हो जाते हैं - उन लोकों के स्वामी, जगत् के नाथ, हे राजन्! उन विष्णु के एक हजार पाप और भय नाशक नामों को सुनो। वे नाम जो महात्मा विष्णु के गौण रूप में प्रसिद्ध हैं, जिन्हें ऋषियों ने गाया है - मैं अब तुम्हारे कल्याण के लिए उन्हें कहता हूँ। ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः । भूतकृद् भूतभृद् भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥14॥ पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः । अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥15॥ योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः । नारसिंहवपुः श्रीमान्केशवः पुरुषोत्तमः ॥16॥ सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः । सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥17॥ स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः । अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥18॥ अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः । विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥19॥ अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः । प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥20॥ ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः । हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥21॥ ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः । अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥22॥ सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः । अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥23॥ अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः । वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥24॥ वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मासम्मितः समः । अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥25॥ रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः । अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥26॥ सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः । वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः ॥27॥ लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः । चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥28॥ भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः । अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥29॥ उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरुर्जितः । अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥30॥ वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः । अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥31॥ महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः । अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥32॥ महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः । अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥33॥ मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः । हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ॥34॥ अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान्स्थिरः । अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ॥35॥ गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः । निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥36॥ अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः । सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् ॥37॥ आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सम्प्रमर्दनः । अहःसंवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः ॥38॥ सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः । सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः ॥39॥ असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः । सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ॥40॥ वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः । वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः ॥41॥ सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः । नैकरूपो बृहद् रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ॥42॥ ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः । ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः ॥43॥ अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः । औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः ॥44॥ भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनलः । कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ॥45॥ युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः । अदृश्योऽव्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् ॥46॥ इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः । क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः ॥47॥ अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः । अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥48॥ स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः । वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥49॥ अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः । अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥50॥ पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् । महर्द्धिर्ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥51॥ अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः । सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान्समितिञ्जयः ॥52॥ विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः । महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥53॥ उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः । करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥54॥ व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः । परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥55॥ रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयोऽनयः । वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥56॥ वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः । हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥57॥ ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः । उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥58॥ विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् । अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥59॥ अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः । नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥60॥ यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः । सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥61॥ सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् । मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥62॥ स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् । वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥63॥ धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् । अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥64॥ गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः । आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥65॥ उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः । शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥66॥ सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः । विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ॥67॥ जीवो विनयितासाक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः । अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः ॥68॥ अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः । आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥69॥ महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः । त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥70॥ महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी । गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥71॥ वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः सङ्कर्षणोऽच्युतः । वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥72॥ भगवान् भगहानन्दी वनमाली हलायुधः । आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥73॥ सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः । दिविस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥74॥ त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् । संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥75॥ शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः । गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥76॥ अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः । श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ॥77॥ श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः । श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ॥78॥ स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः । विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥79॥ उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः । भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥80॥ अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः । अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥81॥ कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः । त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥82॥ कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः । अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥83॥ ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः । ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥84॥ महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः । महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥85॥ स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः । पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥86॥ मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः । वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥87॥ सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः । शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥88॥ भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः । दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः ॥89॥ विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् । अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥90॥ एको नैकः सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम् । लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥91॥ सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी । वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥92॥ अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् । सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥93॥ तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः । प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥94॥ चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः । चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥95॥ समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः । दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥96॥ शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः । इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥97॥ उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः । अर्को वाजसनः श्रृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥98॥ सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः । महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥99॥ कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः । अमृताशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥100॥ सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः । न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥101॥ सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः । अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥102॥ अनुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् । अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्द्धनः ॥103॥ भारभृत्कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः । आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥104॥ धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः । अपराजितः सर्वसहो नियन्तानियमोऽयमः ॥105॥ सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः । अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः ॥106॥ विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः । रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥107॥ अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः । अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥108 सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरप्ययः । स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥109॥ अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः । शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥110॥ अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः । विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥111॥ उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः । वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥112॥ अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः । चतुरस्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥113॥ अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः । जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥114॥ आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः । ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥115॥ प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः । तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥116॥ भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः । यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥117॥ यज्ञभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः । यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥118॥ आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः । देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥119॥ शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः । रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥120॥ ॥ सर्वप्रहरणायुध ॐ नम इति ॥ इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः । नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥121॥ य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् । नाशुभं प्राप्नुयात्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥122॥ वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् । वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ॥123॥ धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् । कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजाम् ॥124॥ भक्तिमान्यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः । सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥125॥ यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च । अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥126॥ न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति । भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥127॥ रोगार्तो मुच्यते रोगाद् बद्धो मुच्येत बन्धनात् । भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥128॥ दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् । स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥129॥ वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः । सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥130॥ न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् । जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥131॥ इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः । युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥132॥ न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः । भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥133॥ द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः । वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥134॥ ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् । जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥135॥ इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः । वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥136॥ सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते । आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥137॥ ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः । जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥138॥ योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च । वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात् ॥139॥ एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः । त्रीँल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥140॥ इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् । पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥141॥ विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभवाप्ययम् । भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥142॥
अर्थ: भगवन विष्णु के नाम विश्वम्, अपांनिधि,विष्णु, अधिष्ठानम,वषट्कार, अप्रमत्त,भूतभव्यभवत्प्रभुः, प्रतिष्ठित,भूतकृत, स्कन्द,भूतभृत, स्कन्दधर,भाव, धुर्य,भूतात्मा, वरद,भूतभावन, वायुवाहन,पूतात्मा, वासुदेव,परमात्मा, बृहद्भानु,मुक्तानां परमागतिः, आदिदेव,अव्ययः, पुरन्दर,पुरुषः, अशोक,साक्षी, तारण,क्षेत्रज्ञः, तार,अक्षर, शूर,योगः, शौरि,योगविदां नेता, जनेश्वर,प्रधानपुरुषेश्वर, अनुकूल,नारसिंहवपुः, शतावर्त,श्रीमान्, पद्मी,केशव, पद्मनिभेक्षण,पुरुषोत्तम, पद्मनाभ,सर्व, अरविन्दाक्ष,शर्व, पद्मगर्भ,शिव, शरीरभृत्,स्थाणु, महार्दि,भूतादि, ऋद्ध,निधिरव्यय, वृद्धात्मा,सम्भव, महाक्ष,भावन, गरुडध्वज,भर्ता, अतुल,प्रभव, शरभ,प्रभु, भीम,ईश्वर, समयज्ञ,स्वयम्भू, हविर्हरि,शम्भु, सर्वलक्षणलक्षण्य,आदित्य, लक्ष्मीवान्,पुष्कराक्ष, समितिञ्जय,महास्वन, विक्षर,अनादिनिधन, रोहित,धाता, मार्ग,विधाता, हेतु,धातुरुत्तम, दामोदर,अप्रमेय, सह,हृषीकेश, महीधर,पद्मनाभ, महाभाग,अमरप्रभु, वेगवान,विश्वकर्मा, अमिताशन,मनु, उद्भव,त्वष्टा, क्षोभण,स्थविष्ठ, देव,स्थविरो ध्रुव, श्रीगर्भ,अग्राह्य, परमेश्वर,शाश्वत, करणं,कृष्ण, कारणं,लोहिताक्ष, कर्ता,प्रतर्दन, विकर्ता,प्रभूत, गहन,त्रिककुब्धाम, गुह,पवित्रं, व्यवसाय,मङ्गलंपरम्, व्यवस्थान,ईशान, संस्थान,प्राणद, स्थानद,प्राण, ध्रुव,ज्येष्ठ, परर्द्धि,श्रेष्ठ, परमस्पष्ट,प्रजापति, तुष्ट,हिरण्यगर्भ, पुष्ट,भूगर्भ, शुभेक्षण,माधव, राम,मधुसूदन, विराम,ईश्वर, विरज,विक्रमी, मार्ग,धन्वी, नेय,मेधावी, नय,विक्रम, अनय,क्रम, वीर,अनुत्तम, शक्तिमतां श्रेष्ठ,दुराधर्ष, धर्म,कृतज्ञ, धर्मविदुत्तम,कृति, वैकुण्ठ,आत्मवान्, पुरुष,सुरेश, प्राण,शरणम, प्राणद,शर्म, प्रणव,विश्वरेता, पृथु,प्रजाभव, हिरण्यगर्भ,अह, शत्रुघ्न,सम्वत्सर, व्याप्त,व्याल, वायु,प्रत्यय, अधोक्षज,सर्वदर्शन, ऋतु,अज, सुदर्शन,सर्वेश्वर, काल,सिद्ध, परमेष्ठी,सिद्धि, परिग्रह,सर्वादि, उग्र,अच्युत, सम्वत्सर,वृषाकपि, दक्ष,अमेयात्मा, विश्राम,सर्वयोगविनिःसृत, विश्वदक्षिण,वसु, विस्तार,वसुमना, स्थावरस्थाणु,सत्य, प्रमाणम्,समात्मा, बीजमव्ययम्,सम्मित, अर्थ,सम, अनर्थ,अमोघ, महाकोश,पुण्डरीकाक्ष, महाभोग,वृषकर्मा, महाधन,वृषाकृति, अनिर्विण्ण,रुद्र, स्थविष्ठ,बहुशिरा, अभू,बभ्रु, धर्मयूप,विश्वयोनि, महामख,शुचिश्रवा, नक्षत्रनेमि,अमृत, नक्षत्री,शाश्वतस्थाणु, क्षम,वरारोह, क्षाम,महातपा, समीहन,सर्वग, यज्ञ,सर्वविद्भानु, ईज्य,विश्वक्सेन, महेज्य,जनार्दन, क्रतु,वेद, सत्रं,वेदविद, सतांगति,अव्यङ्ग, सर्वदर्शी,वेदाङ्ग, विमुक्तात्मा,वेदवित्, सर्वज्ञ,कवि, ज्ञानमुत्तमम्,लोकाध्यक्ष, सुव्रत,सुराध्यक्ष, सुमुख,धर्माध्यक्ष, सूक्ष्म,कृताकृत, सुघोष,चतुरात्मा, सुखद,चतुर्व्यूह, सुहृत्,चतुर्दंष्ट्र, मनोहर,चतुर्भुज, जितक्रोध,भ्राजिष्णु, वीरबाहु,भोजनं, विदारण,भोक्ता, स्वापन,सहिष्णु, स्ववश,जगदादिज, व्यापी,अनघ, नैकात्मा,विजय, नैककर्मकृत्,जेता, वत्सर,विश्वयोनि, वत्सल,पुनर्वसु, वत्सी,उपेन्द्र, रत्नगर्भ,वामन, धनेश्वर,प्रांशु, धर्मगुप,अमोघ, धर्मकृत्,शुचि, धर्मी,उर्जित, सत्,अतीन्द्र, असत्,संग्रह, क्षरम्,सर्ग, अक्षरम्,धृतात्मा, अविज्ञाता,नियम, सहस्रांशु,यम, विधाता,वेद्य, कृतलक्षण,वैद्य, गभस्तिनेमि,सदायोगी, सत्त्वस्थ,वीरहा, सिंह,माधव, भूतमहेश्वर,मधु, आदिदेव,अतीन्द्रिय, महादेव,महामाय, देवेश,महोत्साह, देवभृद्गुरु,महाबल, उत्तर,महाबुद्धि, गोपति,महावीर्य, गोप्ता,महाशक्ति, ज्ञानगम्य,महाद्युति, पुरातन,अनिर्देश्यवपु, शरीरभूतभृत्,श्रीमान, भोक्ता,अमेयात्मा, कपीन्द्र,महाद्रिधृक्, भूरिदक्षिण,महेष्वास, सोमप,महीभर्ता, अमृतप,श्रीनिवास, सोम,सतांगति, पुरुजित,अनिरुद्ध, पुरुसत्तम,सुरानन्द, विनय,गोविन्द, जय,गोविदांपति, सत्यसंध,मरीचि, दाशार्ह,दमन, सात्वतांपति,हंस, जीव,सुपर्ण, विनयितासाक्षी,भुजगोत्तम, मुकुन्द,हिरण्यनाभ, अमितविक्रम,सुतपा, अम्भोनिधि,पद्मनाभ, अनन्तात्मा,प्रजापति, महोदधिशय,अमृत्यु, अन्तक,सर्वदृक्, अज,सिंह, महार्ह,सन्धाता, स्वाभाव्य,सन्धिमान्, जितामित्र,स्थिर, प्रमोदन,अज, आनन्द,दुर्मर्षण, नन्दन,शास्ता, नन्द,विश्रुतात्मा, सत्यधर्मा,सुरारिहा, त्रिविक्रम,गुरु, महर्षि कपिलाचार्य,गुरुतम, कृतज्ञ,धाम, मेदिनीपति,सत्य, त्रिपद,सत्यपराक्रम, त्रिदशाध्यक्ष,निमिष, महाशृङ्ग,अनिमिष, कृतान्तकृत्,स्रग्वी, महावराह,वाचस्पतिउदारधी, गोविन्द,अग्रणी, सुषेण,ग्रामणी, कनकाङ्गदी,श्रीमान्, गुह्य,न्याय, गभीर,नेता, गहन,समीरण, गुप्त,सहस्रमूर्धा, चक्रगदाधर,विश्वात्मा, वेधा,सहस्राक्ष, स्वाङ्ग,सहस्रपात्, अजित,आवर्तन, कृष्ण,निवृत्तात्मा, दृढ,संवृत, संकर्षणोऽच्युत,संप्रमर्दन, वरुण,अहःसंवर्तक, वारुण,वह्नि, वृक्ष,अनिल, पुष्कराक्ष,धरणीधर, महामना,सुप्रसाद, भगवान्,प्रसन्नात्मा, भगहा,विश्वधृक, आनन्दी,विश्वभुज, वनमाली,विभु, हलायुध,सत्कर्ता, आदित्य,सत्कृत, ज्योतिरादित्य,साधु, सहिष्णु,जह्नुनु, गतिसत्तम,नारायण, सुधन्वा,नर, खण्डपरशु,असंख्येय, दारुण,अप्रमेयात्मा, द्रविणप्रद,विशिष्ट, दिवःस्पृक्,शिष्टकृत, सर्वदृग्व्यास,शुचि, वाचस्पतिरयोनिज,सिद्धार्थ, त्रिसामा,सिद्धसंकल्प, सामग,सिद्धिद, साम,सिद्धिसाधन, निर्वाणं,वृषाही, भेषजं,वृषभ, भिषक्,विष्णु, संन्यासकृत,वृषपर्वा, शम,वृषोदर, शान्त,वर्धन, निष्ठा,वर्धमान, शान्ति,विविक्त, परायणम्,श्रुतिसागर, शुभाङ्ग,सुभुज, शान्तिद,दुर्धर, स्रष्टा,वाग्मी, कुमुद,महेन्द्र, कुवलेशय,वसुद, गोहित,वसु, गोपति,नैकरूप, गोप्ता,बृहद्रूप, वृषभाक्ष,शिपिविष्ट, वृषप्रिय,प्रकाशन, अनिवर्ती,ओजस्तेजोद्युतिधर, निवृत्तात्मा,प्रकाशात्मा, संक्षेप्ता,प्रतापन, क्षेमकृत्,ऋद्ध, शिव,स्पष्टाक्षर, श्रीवत्सवक्षा,मन्त्र, श्रीवास,चन्द्रांशु, श्रीपति,भास्करद्युति, श्रीमतां वर,अमृतांशूद्भव, श्रीद,भानु, श्रीश,शशबिन्दु, श्रीनिवास,सुरेश्वर, श्रीनिधि,औषधं, श्रीविभावन,जगतसेतु, श्रीधर,सत्यधर्मपराक्रमः, श्रीकर,भूतभव्यभवन्नाथ, श्रेय,पवन, श्रीमान,पावन, लोकत्रयाश्रय,अनल, स्वक्ष,कामहा, स्वङ्ग,कामकृत्, शतानन्द,कान्त, नन्दि,काम, ज्योतिर्गणेश्वर,कामप्रद, विजितात्मा,प्रभु, अविधेयात्मा,युगादिकृत, सत्कीर्ति,युगावर्त, छिन्नसंशय,नैकमाय, उदीर्ण,महाशन, सर्वतश्चक्षु,अदृश्य, अनीश,व्यक्तरूप, शाश्वतस्थिर,सहस्रजित्, भूशय,अनन्तजित्, भूषण,इष्ट, भूति,अविशिष्ट, विशोक,शिष्टेष्ट, शोकनाशन,शिखण्डी, अर्चिष्मान,नहुष, अर्चित,वृष, कुम्भ,क्रोधहा, विशुद्धात्मा,क्रोधकृत्कर्ता, विशोधन,विश्वबाहु, अनिरुद्ध,महीधर, अप्रतिरथ,अच्युत, प्रद्युम्न,प्रथित, अमितविक्रम,प्राण, कालनेमिनिहा,प्राणद, वीर,वासवानुज, शौरि,वाजसन, शूरजनेश्वर,शृङ्गी, त्रिलोकात्मा,जयन्त, त्रिलोकेश,सर्वविज्जयी, केशव,सुवर्णबिन्दु, केशिहा,अक्षोभ्य, हरि,सर्ववागीश्वरेश्वर, कामदेव,महाह्रद, कामपाल,महागर्त, कामी,महाभूत, कान्त,महानिधि, कृतागम,कुमुद, अनिर्देश्यवपु,कुन्दर, विष्णु,कुन्द, वीर,पर्जन्य, अनन्त,पावन, धनंजय,अनिल, ब्रह्मण्य,अमृतांश, ब्रह्मकृत,अमृतवपु, ब्रह्मा,सर्वज्ञ, ब्रह्म,सर्वतोमुख, ब्रह्मविवर्धन,सुलभ, ब्रह्मवित,सुव्रत, ब्राह्मण,सिद्ध, ब्रह्मी,शत्रुजित, ब्रह्मज्ञ,शत्रुतापन, ब्राह्मणप्रिय,न्यग्रोध, महाक्रम,उदुम्बर, महाकर्मा,अश्वत्थ, महातेजा,चाणूरान्ध्रनिषूदन, महोरग,सहस्रार्चि, महाक्रतु,सप्तजिह्व, महायज्वा,सप्तैधा, महायज्ञ,सप्तवाहन, महाहवि,अमूर्ति, स्तव्य,अनघ, स्तवप्रिय,अचिन्त्य, स्तोत्रं,भयकृत, स्तुति,भयनाशन, स्तोता,अणु, रणप्रिय,बृहत, पूर्ण,कृश, पूरयिता,स्थूल, पुण्य,गुणभृत, पुण्यकीर्ति,निर्गुण, अनामय,महान्, मनोजव,अधृत, तीर्थकर,स्वधृत, वसुरेता,स्वास्य, वसुप्रद,प्राग्वंश, वसुप्रद,वंशवर्धन, वासुदेव,भारभृत्, वसु,कथित, वसुमना,योगी, हवि,योगीश, सद्गति,सर्वकामद, सत्कृति,आश्रम, सत्ता,श्रमण, सद्भूति,क्षाम, सत्परायण,सुपर्ण, शूरसेन,वायुवाहन, यदुश्रेष्ठ,धनुर्धर, सन्निवास,धनुर्वेद, सुयामुन,दण्ड, भूतावास,दमयिता, वासुदेव,दम, सर्वासुनिलय,अपराजित, अनल,सर्वसह, दर्पहा,नियन्ता, दर्पद,अनियम, दृप्त,अयम, दुर्धर,सत्त्ववान्, अपराजित,सात्त्विक, विश्वमूर्ति,सत्य, महामूर्ति,सत्यधर्मपरायण, दीप्तमूर्ति,अभिप्राय, अमूर्तिमान्,प्रियार्ह, अनेकमूर्ति,अर्ह, अव्यक्त,प्रियकृत्, शतमूर्ति,प्रीतिवर्धन, शतानन,विहायसगति, एक,ज्योति, नैक,सुरुचि, सव,हुतभुक, कः,विभु, किं,रवि, यत्,विरोचन, तत्,सूर्य, पदमनुत्तमम्,सविता, लोकबन्धु,रविलोचन, लोकनाथ,अनन्त, माधव,हुतभुक, भक्तवत्सल,भोक्ता, सुवर्णवर्ण,सुखद, हेमाङ्ग,नैकज, वराङ्ग,अग्रज, चन्दनाङ्गदी,अनिर्विण्ण, वीरहा,सदामर्षी, विषम,लोकाधिष्ठानाम्, शून्य,अद्भूत, घृताशी,सनात्, अचल,सनातनतम, चल,कपिल, अमानी,कपि, मानद,अव्यय, मान्य,स्वस्तिद, लोकस्वामी,स्वस्तिकृत्, त्रिलोकधृक्,स्वस्ति, सुमेधा,स्वस्तिभुक, मेधज,स्वस्तिदक्षिण, धन्य,अरौद्र, सत्यमेधा,कुण्डली, धराधर,चक्री, तेजोवृष,जन्ममृत्युजरातिग, द्युतिधर,भूर्भुव:स्वस्तरु, सर्वशस्त्रभृतांवर,तार, प्रग्रह,सविता, निग्रह,प्रपितामह, व्यग्र,यज्ञ, नैकशृङ्ग,यज्ञपति, गदाग्रज,यज्वा, चतुर्मूर्ति,यज्ञाङ्ग, चतुर्बाहु,यज्ञवाहन, चतुर्व्यूह,यज्ञभृत्, चतुर्गति,यज्ञकृत्, चतुरात्मा,यज्ञी, चतुर्भाव,यज्ञभुक, चतुर्वेदवित्,यज्ञसाधन, एकपात्,यज्ञान्तकृत्, समावर्त,यज्ञगुह्यम्, अनिवृत्तात्मा,अन्नं, दुर्जय,अन्नाद, दुरतिक्रम,आत्मयोनि, दुर्लभ,स्वयंजात, दुर्गम,वैखान, दुर्ग,सामगायन, दुरावासा,देवकीनन्दन, दुरारिहा,सृष्टा, शुभाङ्ग,क्षितीश, लोकसारङ्ग,पापनाशन, सुतन्तु,शङ्खभृत्, तन्तुवर्धन,नन्दकी, इन्द्रकर्मा,चक्री, महाकर्मा,शार्ङ्गधन्वा, कृतकर्मा,गदाधर, कृतागम,रथाङ्गपाणि, उद्भव,अक्षोभ्य, सुन्दर,सर्वप्रहरणायुध, सुन्द,चतुरश्र, रत्ननाभ,गभीरात्म, सुलोचन,विदिश, अर्क,व्यादिश, विक्रमी,दिश, उर्जितशासन,अनादि, शब्दातिग,भुवोभुव, शब्दसह,लक्ष्मी, शिशिर,सुवीर, शर्वरीकर,अधाता, अक्रूर,आधारनिलय, पेशल,ऊर्ध्वग, दक्ष,एकात्मा, दक्षिण,जनजन्मादि, क्षमिणां वर,जनन, विद्वत्तम,तत्त्वं, वीतभय,तत्त्ववित्, पुण्यश्रवणकीर्तन,पण, उत्तारण,पुष्पहास, दुष्कृतिहा,प्रजागर, पुण्य,प्रणव, दुःस्वप्ननाशन,प्रमाणम्, वीरहा,प्राणजीवन, रक्षण,प्राणद, सन्त,प्राणनिलय, जीवन,प्राणभृत्, पर्यवस्थित,भीम, अनन्तरूप,भीमपराक्रम, अनन्तश्री,रुचिराङ्गद, जितमन्यु,विश्वम, भयापह
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र जीवन और साधना दोनों के लिए संपूर्ण मार्गदर्शक माना जाता है। नियमित और भावपूर्ण जप से:
यह स्तोत्र साधक को निरंतर यह स्मरण करवाता है कि ईश्वर सर्वत्र हैं, हर रूप और हर स्थिति में वही विष्णुतत्त्व व्याप्त है।
फलप्रद जप के लिए श्रद्धा, नियम और शुद्धता अत्यंत आवश्यक हैं।
विष्णु सहस्रनाम केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन-दर्शन का सार है। हर नाम हमें किसी न किसी सत्य की याद दिलाता है:
जब साधक इन नामों का जप करता है तो वह केवल किसी दूर बैठे देवता को नहीं, बल्कि अपने हृदयस्थ परमात्मा को पुकार रहा होता है।
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र साधारण पाठ नहीं, आत्मा की शांति, बुद्धि की प्रखरता और जीवन की समृद्धि का दिव्य द्वार है। आधुनिक तनावपूर्ण और उलझे हुए जीवन में यह स्तोत्र एक चिरंतन आधार बन सकता है, जिसके माध्यम से हम ईश्वर से जुड़ते हैं, स्वयं को पहचानते हैं और जीवन को अधिक संतुलित, उद्देश्यपूर्ण और शांत ढंग से जीना सीखते हैं। सनातन धर्म की जीवित परंपरा में यह ग्रंथ इस सत्य का प्रतीक है कि ईश्वर का “नाम” स्वयं शक्ति, संरक्षण और कृपा का स्रोत है।
विष्णु सहस्रनाम स्तोत्र महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह द्वारा युद्ध के बाद धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाया गया था, जब वे धर्म, कर्तव्य और मोक्ष के विषय में मार्गदर्शन मांग रहे थे।
प्रतिदिन जप से मन शांत, बुद्धि निर्मल, पापक्षय, बाधाओं में कमी, पारिवारिक सौहार्द, आर्थिक स्थिरता और आध्यात्मिक उन्नति जैसे विविध लाभ अनुभव किए जाते हैं।
नहीं, यह स्तोत्र वर्ण, जाति, उम्र या लिंग से परे है। कोई भी व्यक्ति जो श्रद्धा, स्वच्छता और निष्ठा से इसका पाठ करे, वह इसके आध्यात्मिक और लौकिक फल प्राप्त कर सकता है।
श्रद्धापूर्वक उच्चारण मात्र से भी पुण्य और मानसिक शांति प्राप्त होती है, परंतु अर्थ समझकर जप करने से नाम और भाव दोनों का प्रभाव गहरा होता है और जीवन में अधिक स्पष्टता और परिवर्तन दिखाई देता है।
परंपरा अनुसार बृहस्पति, बुध, राहु आदि से संबंधित कुछ ज्योतिषीय दोषों में यह स्तोत्र अत्यंत शुभ माना गया है और कठिन समय में इसका जप विशेष रूप से शांति और समाधान की दिशा में सहायक होता है।
सुबह या रात को केवल कुछ अंश, या पूरे स्तोत्र का संक्षिप्त जप भी नियमित रूप से किया जाए तो प्रभावकारी है। सप्ताह में एक या दो दिन विस्तार से पाठ, शेष दिनों में न्यूनतम नाम-जप से भी सतत साधना बनी रहती है।
हाँ, श्रद्धा से सुनना, मोबाइल या रिकॉर्डिंग के माध्यम से भी, लाभकारी माना गया है, विशेषकर जब मन अर्थ और भावना पर केन्द्रित रहकर सुनता है और भीतर प्रत्युत्तर में “नारायण” स्मरण करता है।
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अनुभव: 19
इनसे पूछें: विवाह, संबंध, करियर
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि., ओडि, उ.प्र.
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