By पं. अमिताभ शर्मा
जानिए श्री गजानन स्तोत्र का आध्यात्मिक महत्व, पाठ विधि, और इसके मानसिक, आत्मिक तथा सांसारिक लाभों की विवेचनात्मक जानकारी
विघ्नों का नाश करने वाले और शुभारंभ के अधिष्ठाता भगवान गणेश की उपासना सनातन धर्म की एक मौलिक परंपरा रही है। श्री गजानन स्तोत्र उन्हीं की स्तुति में रचित एक प्रभावशाली और सारगर्भित स्तोत्र है, जो साधक को केवल सांसारिक सफलता ही नहीं, बल्कि आंतरिक शांति और आत्मिक संतुलन की भी अनुभूति कराता है। यह स्तोत्र न केवल भावनाओं को छूता है, बल्कि आध्यात्मिक साधना की दिशा भी प्रदान करता है।
यह स्तोत्र कुल 21 छंदों में विभाजित है, जिसमें भगवान गणेश के विविध स्वरूपों और गुणों का वर्णन किया गया है। प्रत्येक छंद गणपति के किसी विशिष्ट तत्त्व की स्तुति करता है - जैसे उनकी निर्विकारता, आत्मानंदस्वरूपता, उत्कृष्ट बुद्धि का दान करने की शक्ति, चित्त की शांति, तथा उनकी पूर्णता जो समस्त रूपों में विद्यमान है। श्री गजानन स्तोत्र में भगवान गणेश को अनंत, सर्वव्यापक और हृदय में विराजमान चेतना के रूप में वर्णित किया गया है। उनका कोई आदि, मध्य या अंत नहीं है और वे समस्त ब्रह्मांड के आधार हैं। यह स्तोत्र उन्हें अज्ञान का नाश करने वाले, ज्ञान देने वाले और सभी कार्यों को निर्विघ्न पूरा कराने वाले देवता के रूप में प्रस्तुत करता है।
यह स्तोत्र न तो केवल एक धार्मिक पाठ है, न ही केवल प्रार्थना - यह एक ध्यानात्मक प्रक्रिया है जिसमें शब्दों के माध्यम से साधक धीरे-धीरे भीतर की ओर यात्रा करता है।
देवर्षि उवाचुः
विदेहरूपं भवबन्धहारं सदा स्वनिष्ठं स्वसुखप्रद तम्।
अमेयसांख्येन च लक्ष्यमीशं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
मुनीन्द्रवन्यं विधिबोधहीनं सुबुद्धिदं बुद्धिधरं प्रशान्तम्।
विकारहीनं सकलाङ्गकं वै गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
अमेयरूपं हृदि संस्थितं तं ब्रह्माहमेकं भ्रमनाशकारम्।
अनादिमध्यान्तमपाररूपं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
जगत्प्रमाणं जगदीशमेवमगम्यमाद्यं जगदादिहीनम्।
अनात्मनां मोहप्रदं पुराणं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
न पृथ्विरूपं न जलप्रकाशं न तेजसंस्थं न समीरसंस्थम्।
न खे गतं पञ्चविभूतिहीनं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
अर्थ: देवर्षि कहते हैं-हम उन गजानन भगवान का भक्तिपूर्वक भजन करते हैं जो देह से परे हैं, संसार बंधनों को काटने वाले हैं, सदा आत्मस्वरूप में स्थित हैं और अपने में ही सुख प्रदान करते हैं। जो मुनियों के द्वारा वरण किए गए हैं, जिनका स्वरूप विधि-बोध से परे है, उत्तम बुद्धि देने वाले, बुद्धिधारी, शांतचित्त, विकाररहित और सर्वांगपूर्ण हैं। जो अमेय स्वरूप वाले हैं, हृदय में स्थित हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, भ्रम का नाश करने वाले हैं, जिनका न आदि है, न मध्य, न अंत, जो अपार रूप में स्थित हैं। जो समस्त जगत के मापदंड हैं, जगत के ईश्वर हैं, जिन्हें जाना नहीं जा सकता, जो आदि स्वरूप हैं और जगत के आरंभ से रहित हैं। जो आत्मा से रहित जनों को मोह प्रदान करते हैं, जो आदिपुरुष हैं। जो पृथ्वी रूप में नहीं हैं, न जल में हैं, न तेज में स्थित हैं, न वायु में हैं, न आकाश में स्थित हैं, और पाँचों भौतिक तत्त्वों से रहित हैं-ऐसे गजानन का हम भक्तिपूर्वक भजन करते हैं।
न विश्वगं तैजसगं न प्राज्ञं समष्टिव्यष्टिस्थमनन्तगं तम्।
गुणैर्विहीनं परमार्थभूतं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
गुणेशगं नैव च बिन्दुसंस्थं न देहिनं बोधमयं न दुष्टिम्।
सुयोगहीनं प्रवदन्ति तत्स्थं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
अनागतं ग्रैवगतं गणेशं कथं तदाकारमयं वदामः।
तथापि सर्वं प्रतिदेहसंस्थं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
यदि त्वया नाथ घृतं न किंचित्तदा कथं सर्वमिदं भजामि।
अतो महात्मानमचिन्त्यमेवं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
सुसिद्धिदं भक्तजनस्य देवं सकामिकानामिह सौख्यदं तम्।
अकामिकानां भवबन्धहारं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
अर्थ: हम उन गजानन भगवान का भक्तिपूर्वक भजन करते हैं जो न तो विश्व में स्थित हैं, न ही तेजस्वी तत्वों में, न प्राज्ञ (प्रज्ञा स्वरूप) हैं; जो समष्टि और व्यष्टि दोनों में स्थित होकर भी अनंत हैं; जो गुणों से रहित हैं और परमार्थ स्वरूप हैं। जो गुणों के अधिपति होकर भी गुणातीत हैं, बिंदु (ब्रह्मांडीय केंद्र) में स्थित नहीं हैं, न ही देहधारी हैं, न ही केवल बोधमात्र स्वरूप हैं, और जिन्हें किसी दृष्टि से देखा नहीं जा सकता; जिन्हें सुयोग से रहित कहा गया है और जो तत्त्वरूप में स्थित हैं। जो न तो आने वाले हैं और न ही बीते हुए-ऐसे गणेश का हम किस प्रकार आकारयुक्त कहें? फिर भी वे सभी प्राणियों के शरीरों में स्थित हैं। यदि हे नाथ! आप वास्तव में किसी एक स्थान में स्थित नहीं हैं, तो मैं सम्पूर्ण जगत में आपकी उपस्थिति की आराधना कैसे कर रहा हूँ? इसलिए हम उस महात्मा, अचिंत्य, सर्वव्यापक गजानन का भक्तिपूर्वक भजन करते हैं। जो भक्तों को सिद्धि प्रदान करते हैं, कामनावान लोगों को इस संसार में सुख देते हैं, और अकामियों के लिए संसार बंधन से मुक्ति का कारण बनते हैं-ऐसे गजानन का हम भक्तिपूर्वक भजन करते हैं।
सुरेन्द्रसेव्यं ह्यसुरैः सुसेव्यं समानभावेन विराजयन्तम्।
अनन्तबाहुं मुषकध्वज तं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
सदा सुखानन्दमयं जले च समुद्रजे इक्षुरसे निवासम्।
द्वन्द्वस्य यानेन च नाशरूपं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
चतुःपदार्था विविद्यप्रकाशास्त एवं हस्ताः सचतुर्भुजं तम्।
अनाथनाथं च महोदरं वे गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
महाखुमारुढमकालकालं विदेहयोगेन च लभ्यमानम्।
अमायिनं मायिकमोहदं तं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
रविस्वरूपं रविभासहीनं हरिस्वरूपं हरिबोधहीनम्।
शिवस्वरूपं शिवभासनाशं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
अर्थ: हम उन गजानन भगवान का भक्तिपूर्वक भजन करते हैं जो देवताओं और असुरों-दोनों के द्वारा समान रूप से सेवा योग्य हैं और सबको समभाव से विराजमान करते हैं; जिनकी भुजाएं अनंत हैं और जिनका ध्वज चूहे (मूषक) के साथ है। जो सदा सुख और आनंद से परिपूर्ण हैं, जो जल, समुद्र और गन्ने के रस जैसे मधुर तत्वों में निवास करते हैं, जो द्वंद्वों के यान (द्वैत भाव) को नष्ट करने वाले हैं। जिनके चार भुजाओं में चार प्रकार के पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को प्रकाशित करने वाले विविध आयुध हैं, जो अनाथों के नाथ हैं और जिनका उदर विशाल है-ऐसे महोदर गजानन का हम भजन करते हैं। जो महान कुमार (कार्तिकेय) के वाहन पर आरूढ़ हैं, जो मृत्यु के भी संहारक हैं, जो शरीर-त्याग (विदेह) के योग से प्राप्त किए जा सकते हैं; जो स्वयं मायारहित हैं परंतु माया और मोह उत्पन्न करने वाले हैं। जो सूर्यस्वरूप होते हुए भी सूर्य के प्रकाश से रहित हैं, विष्णुस्वरूप होते हुए भी विष्णुबोध से रहित हैं, शिवस्वरूप होते हुए भी शिव के रूप की आभा को नष्ट कर देने वाले हैं-ऐसे गजानन का हम भक्तिपूर्वक भजन करते हैं।
महेश्वरीस्थं च सुशक्तिहीनं प्रभुं परेशं परवन्द्यमेवम्।
अचालकं चालकबीजरूपं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
शिवादिदेवैश्च खगैश्च वन्यं नरैर्लतावृक्षपशुप्रमुख्यैः।
चराचरैर्लोकविहीनमेकं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
मनोवचोहीनतया सुसंस्थं निवृत्तिमात्रं ह्मजमव्ययं तम्।
तथापि देवं पुरसंस्थितं तं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
वयं सुधन्या गणपस्तवेन तथैव मर्त्यार्चनतस्तथैव।
गणेशरूपाय कृतास्त्वया तं गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
गजास्यबीजं प्रवदन्ति वेदास्तदेव चिह्नेन च योगिनस्त्वाम्।
गच्छन्ति तेनैव गजानन त्वां गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
पुराणवेदाः शिवविष्णुकाद्याः शुक्रादयो ये गणपस्तवे वै।
विकुण्ठिताः किं च वयं स्तुवीमो गजाननं भक्तियुतं भजामः॥
।। इति श्री गजानन स्तोत्रम् ।।
अर्थ: हम उन गजानन भगवान का भक्तिपूर्वक भजन करते हैं जो महेश्वरी शक्ति में स्थित हैं, परंतु स्वयं शक्ति से रहित दिखाई देते हैं; जो प्रभु हैं, परमेश्वर हैं, और परम वंदनीय हैं; जो स्थिर रहते हुए भी चालक रूप में बीजस्वरूप हैं। जो शिव, विष्णु जैसे देवताओं, पक्षियों, वनवासियों, मनुष्यों, लताओं, वृक्षों, पशुओं, चर और अचर जीवों के द्वारा पूजित हैं, परंतु स्वयं लोकों से रहित एकमात्र सत्ता हैं। जो मन और वाणी की सीमा से परे हैं, जो केवल निवृत्ति रूप में स्थित हैं, अजन्मा हैं, अविनाशी हैं, फिर भी प्रकट रूप में नगर में स्थित दिखाई देते हैं-ऐसे गजानन का हम भजन करते हैं। हम धन्य हैं कि हम गणपति की स्तुति करते हैं, मृत्युलोक में पूजा करते हैं, और उन्हीं की कृपा से गणेशमय बने हुए हैं। वेद गजानन को गजमुख का बीज कहते हैं, और योगीगण उस चिन्ह के द्वारा ही उन्हें प्राप्त करते हैं-उन्हीं गजानन का हम भजन करते हैं। पुराण, वेद, शिव, विष्णु, शुक्र आदि भी जो गणेश स्तुति करते हैं, जब वे सभी उन्हें पूर्ण रूप से नहीं समझ पाते, तो फिर हम जैसे सामान्य लोग उनका गुणगान कैसे कर सकते हैं? फिर भी हम श्रद्धा से गजानन का भजन करते हैं। यही श्री गजानन स्तोत्र का समापन है।
श्री गजानन स्तोत्र का प्रभाव केवल बाह्य जीवन में सीमित नहीं रहता; यह साधक के आंतरिक जगत को भी परिवर्तित करता है। इसके लाभों में शामिल हैं:
इस स्तोत्र का पाठ करते समय श्रद्धा, एकाग्रता और पवित्रता तीनों अत्यंत आवश्यक माने जाते हैं। यहाँ एक पारंपरिक विधि दी गई है जिसे दैनिक जीवन में सरलता से अपनाया जा सकता है:
श्री गजानन स्तोत्र का पाठ किसी आयु, जाति या पृष्ठभूमि की सीमा में नहीं बंधा है। यह उन सभी के लिए उपयुक्त है:
श्री गजानन स्तोत्र की सबसे विशेष बात यह है कि इसमें केवल गुणगान नहीं है, बल्कि आत्मसमीक्षा का भी अवसर है। जब हम गणेशजी को निर्विकार, शांतचित्त, और सर्वज्ञ मानकर उनका स्मरण करते हैं, तब वह चेतना हमारे भीतर भी जागने लगती है। यही कारण है कि यह स्तोत्र न केवल पाठक के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाता है, बल्कि उसके विचार, व्यवहार और दृष्टिकोण में भी शुद्धता लाता है।
श्री गजानन स्तोत्र एक ऐसा साधन है जो श्रद्धा और संयम से किया जाए तो साधक के जीवन को भीतर और बाहर - दोनों स्तरों पर रूपांतरित कर सकता है। यह केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि एक मानसिक और आत्मिक औषधि है, जो कठिन परिस्थितियों में स्थिरता, मार्गदर्शन और आश्रय देती है। यदि आप जीवन में स्थायित्व, सफलता और आंतरिक शांति की तलाश में हैं, तो इस स्तोत्र को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बनाइए - यह केवल पाठ नहीं, एक आत्मिक संगति है।
अनुभव: 32
इनसे पूछें: जीवन, करियर, स्वास्थ्य
इनके क्लाइंट: छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
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