By पं. सुव्रत शर्मा
शिव की तांडव शक्ति, रावण की भक्ति, और साधक के लिए आत्मिक उत्थान का मंत्र
शिव तांडव स्तोत्र केवल एक धार्मिक पाठ नहीं, बल्कि शिव भक्ति का वह अद्वितीय रूप है जिसमें ब्रह्मांडीय ऊर्जा की धारा प्रवाहित होती है। इसे रचा था लंकापति रावण ने-एक असुर होने के बावजूद शिव का परम भक्त, विद्वान, ज्योतिषाचार्य और वेदों का ज्ञाता। यह स्तोत्र रावण की शिवभक्ति का प्रतीक है, जो उसने स्वयं भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तीव्र पीड़ा में रचा था। यह सिर्फ काव्यात्मक स्तुति नहीं, बल्कि साधक के जीवन को ऊर्जावान, सशक्त और दिव्य बनाने वाला मंत्र है।
वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड के अनुसार, रावण जब पुष्पक विमान से स्वर्ण लंका लौट रहा था, तो मार्ग में कैलाश पर्वत के ऊपर से विमान नहीं गुजर सका। नंदी ने बताया कि यह भगवान शिव का निवास है और कोई भी अजनबी इस पर से नहीं जा सकता। रावण ने इसे अपमान समझा और पर्वत को उठा लेने का प्रयास किया। तब भगवान शिव ने केवल एक झटका देकर उसका हाथ पर्वत के नीचे दबा दिया। असहनीय पीड़ा में कराहते हुए रावण ने शिव की स्तुति में जो श्लोक गाए, वे बाद में शिव तांडव स्तोत्र कहलाए। कहा जाता है, उसने अपनी नसों की वीणा बनाई और तेज स्वर में स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिव ने उसे क्षमा कर दिया।
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले,
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं,
चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥1॥
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी,
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥2॥
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुर,
स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि,
क्वचिद्दिगम्बरे(क्वचिच्चिदम्बरे) मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥
जटा भुजङ्ग पिङ्गल स्फुरत्फणा मणिप्रभा,
कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे,
मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥
अर्थ: जिस स्थान पर जटाओं से गिरती हुई गंगा की धाराएं बह रही हैं और वह स्थल पवित्र हो गया है, उस स्थान पर अपने गले में ऊँचा लटकता हुआ सर्पों की मालिका धारण करके, डमरू से "डम-डम" की तीव्र ध्वनि करते हुए, चण्ड ताण्डव करने वाले शिव हमें कल्याण प्रदान करें।
जटाओं के उलझे हुए समूह में देवताओं की नदी (गंगा) की लहरें चंचल होकर घूम रही हैं, जो उनके शीश पर शोभायमान हैं। उनके ललाटपट्ट (माथे) पर धधकती हुई अग्नि प्रज्वलित हो रही है, और उनके सिर पर किशोर चंद्रमा विराजमान है - उसमें मेरी प्रति क्षण रुचि बनी रहे।
धराधर (हिमालय) की पुत्री (पार्वती) की क्रीड़ा के सहचर और प्रियतम, जो दिशाओं के विस्तार में आनंदित मन वाले हैं, उनकी कृपा की दृष्टि से कठिन आपदाएं भी रुक जाती हैं - कभी नग्न (दिगम्बर) उस वस्तु में मेरा मन रम जाए।
जटाओं में पिंगल (पीले) नाग, जिनकी फणों में मणियों की प्रभा दमक रही है, जो दिशाओं की वधुओं के मुखों पर कदम्ब और कुंकुम रस से लेपित हैं, जिनके शरीर पर मद से उन्मत्त हाथी की त्वचा ओढ़ी हुई है - उन भूतों के स्वामी शिव मेरे मन में अद्भुत आनन्द उत्पन्न करें।
सहस्र लोचनप्रभृत्य शेष लेखशेखर,
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।
भुजङ्ग राजमालया निबद्ध जाटजूटक,
श्रियै चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥
ललाट चत्वरज्वलद् धनञ्जयस्फुलिङ्गभा,
निपीत पञ्चसायकं नमन्निलिम्प नायकम्।
सुधा मयूखले खया विराजमानशेखरं,
महाकपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तु नः ॥6॥
कराल भाल पट्टिका धगद्धगद्धग ज्ज्वला,
द्धनञ्जयाहुती कृतप्रचण्ड पञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक,
प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने रतिर्मम ॥7॥
नवीन मेघ मण्डली निरुद् धदुर् धरस्फुरत्,
कुहू निशीथि नीतमः प्रबन्ध बद्ध कन्धरः।
निलिम्प निर्झरी धरस् तनोतु कृत्तिसिन्धुरः,
कला निधान बन्धुरः श्रियं जगद् धुरंधर: ॥8॥
अर्थ: जिस चरण-पीठ पर सहस्र नेत्रों वाले इंद्र आदि देवता, शेषनाग तथा अन्य देवगणों के पुष्पों की धूल उड़ाते हुए चढ़ते हैं, और जो चरण नागों की राजमालाओं से युक्त जटाजूट से सुशोभित हैं - वह चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाले (चकोर के प्रिय बंधु) शिव हमारे लिए सदा कल्याणकारी हों।
जिनके ललाट के मध्य भाग में प्रज्वलित अग्नि (अर्जुन की भांति ज्वालाएं फेंकती हुई) धधक रही है, जिन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया है, जिनके आगे देवताओं के स्वामी नत होते हैं, जिनके सिर पर अमृत की किरणों जैसे चंद्रमा से युक्त आभा है, ऐसे महाकपालधारी शिव के जटा-जूट हमें शुभ प्रदान करें।
जिनके कठोर ललाटपट्ट पर भयंकर अग्नि "धगधग" करके जल रही है, जो अग्नि अर्जुन के जैसे प्रचण्ड है, जिन्होंने कामदेव को हवन की आहुति बना डाला, जो हिमालयकन्या पार्वती के वक्षस्थल पर चित्र बनाते हैं, ऐसे तीन नेत्रों वाले शिव में मेरी लगन बनी रहे।
जिनकी गर्दन नवीन मेघों की मण्डली से ढकी हुई है, जो भयंकर अंधकारमय रात्रि को भी छिन्न-भिन्न कर सकते हैं, जो स्वर्गीय गंगा की धाराओं से अभिसिंचित हैं, जो चर्म धारण किए हुए हैं, जो कलाओं के खजाने जैसे शोभायमान हैं और जो इस जगत को धारण करने की शक्ति रखते हैं - वे शिव हम पर कृपा करें।
प्रफुल्ल नीलपङ्कज प्रपञ्च कालिम प्रभा,
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं,
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥
अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी,
रसप्रवाह माधुरी विजृम्भण मधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं,
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥10॥
जयत् वदभ्र विभ्रम भ्रमद् भुजङ्ग मश्वस,
द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल,
ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः ॥11॥
स्पृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्-
गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृष्णारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः,
समप्रवृत्तिकः ( समं प्रवर्तयन्मनः) कदा सदाशिवं भजे ॥12॥
अर्थ: मैं उस शिव की वंदना करता हूँ, जिनकी गरदन पर प्रस्फुटित नील कमल के समान अंधकारमयी प्रभा बिखरी है, जो उनके कंठ की माला जैसी बेल में सुशोभित है। जो कामदेव का नाशक हैं, त्रिपुर का नाशक हैं, संसार-बंधन का नाश करने वाले हैं, यज्ञ का विध्वंस करने वाले हैं, गजराज का संहार करने वाले हैं, अंधकासुर का वध करने वाले हैं और मृत्यु के देवता यमराज तक का नाश करने वाले हैं।
मैं उस शिव की उपासना करता हूँ जो अनन्त, समस्त शुभ कलाओं के समूह, रस और माधुर्य के प्रवाह से पूर्ण, प्रेम रूपी मधुमक्खियों को आकर्षित करने वाले हैं। जो काम का अंत करने वाले, त्रिपुर का अंत करने वाले, भव-सागर से मुक्ति देने वाले, यज्ञों का विनाश करने वाले, गजराज और अंधकासुर का संहार करने वाले तथा स्वयं मृत्यु के भी संहारक हैं।
वह शिव विजयशाली हों, जिनके सिर पर डमरू की ध्वनि, मृदंग की “धिम-धिम” गूंज के साथ तांडव नृत्य की गति चल रही है, जिनके फन फैलाए हुए साँप गरदन के चारों ओर घूमते हैं, और जिनके ललाट से अग्नि की ज्वालाएं प्रज्वलित हो रही हैं।
मैं उस सदाशिव का स्मरण करता हूँ, जो रत्न और मिट्टी के बीच समान भाव रखते हैं, सर्प-मणियों की माला और सजे बिस्तर के बीच भेद नहीं करते, मित्र और शत्रु में समता रखते हैं, जिनकी दृष्टि तृष्णा से भरे मनुष्य और महान राजाओं में एक जैसी है, और जिनका मन सदा समभाव से संचालित होता है।
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन्,
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरः स्थमञ्जलिं वहन्।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः,
शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥13॥
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं,
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम्।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं,
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् ॥14॥
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं,
यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे।
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां,
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः॥15॥
॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम् ॥
अर्थ: कब ऐसा होगा कि मैं देवलोक की नदियों के कुंजों की गुफाओं में निवास करूंगा, दुष्ट बुद्धि से मुक्त होकर, सदा सिर झुकाए अंजलि में हाथ जोड़कर खड़ा रहूंगा, मेरी चंचल दृष्टि संयमित हो जाएगी, और मेरा मन शिव के तेजस्वी ललाट पर स्थिर हो जाएगा - और मैं “शिव, शिव” इस मंत्र का उच्चारण करते हुए परम सुखी हो जाऊंगा?
जो मनुष्य इस उत्तम से भी उत्तम स्तोत्र को प्रतिदिन इस प्रकार बोलता, याद करता और उच्चारित करता है, वह निरंतर शुद्धता को प्राप्त करता है। भगवान हर और सद्गुरु के प्रति जो सच्ची भक्ति करता है, वह शीघ्र ही परम गति को प्राप्त करता है - अन्य किसी उपाय से नहीं। क्योंकि भगवान शंकर का चिंतन देहधारियों के सभी प्रकार के मोह को समाप्त कर देता है।
जो कोई पूजा के अंत में या प्रदोषकाल में इस दशमुख (रावण) द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करता है, और शिवपूजन में लगा रहता है - उसे भगवान शंभु रथ, हाथी, घोड़े आदि से युक्त स्थिर लक्ष्मी (ऐश्वर्य और समृद्धि) सदा प्रदान करते हैं।
॥ इस प्रकार दशानन रावण द्वारा रचित शिव तांडव स्तोत्र संपूर्ण हुआ ॥
इस स्तोत्र की हर पंक्ति भगवान शिव की उस तांडवात्मक, उर्जस्वी और रहस्यमयी शक्ति को प्रकट करती है जिससे सृष्टि का सृजन, पालन और संहार-all एक ही सत्ता में समाहित हैं। रावण की यह रचना उसकी भक्ति, विद्वता और शाब्दिक सामर्थ्य का एक अनूठा उदाहरण है। यह स्तोत्र पढ़ते समय साधक स्वयं को शिव की ऊर्जा से जुड़ा हुआ अनुभव करता है-मानसिक विकार शांत होते हैं, आत्मबल जागृत होता है और चेतना एक उच्चतर स्तर पर पहुंचती है।
शिव तांडव स्तोत्र का पाठ एक विशेष भावना और पवित्रता के साथ किया जाना चाहिए:
शिव तांडव स्तोत्र का पाठ केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं बल्कि एक आंतरिक साधना है। यह साधक को उसकी सीमित चेतना से निकालकर शिवतत्व से जोड़ता है, जो सृजन, विनाश और मौन तीनों में व्याप्त है। रावण के अहंकार का पराभव और उसकी भक्ति का उत्कर्ष इस स्तोत्र में झलकता है। यही शिव की लीला है-जो दंड भी देते हैं, और सच्चे पश्चाताप पर क्षमा भी करते हैं।
शिव तांडव स्तोत्र केवल एक भजन नहीं, यह एक दिव्य अनुभव है। इसमें रावण के शब्दों में शिव के प्रति वह श्रद्धा है जो उसे फिर से भगवान की कृपा का पात्र बना देती है। जो साधक इसे सच्चे मन से पढ़ते हैं, उनके जीवन में स्थिरता, आत्मविश्वास और ईश कृपा का वास होने लगता है। यह स्तोत्र भगवान शिव की शक्ति, करुणा और न्याय का समन्वय है-जो हमें याद दिलाता है कि भक्ति के आगे अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं।
अनुभव: 27
इनसे पूछें: विवाह, करियर, संपत्ति
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि., ओडि
इस लेख को परिवार और मित्रों के साथ साझा करें