By पं. सुव्रत शर्मा
शुद्ध चेतना, चिदानन्द और आत्मदर्शन का स्वरूप

शिव को केवल देवता या किसी विशिष्ट आचार्य संप्रदाय के पूजनीय पुरुष रूप में नहीं देखा जाता बल्कि उन्हें उस मौन, शून्यता और अनंत व्याप्ति के रूप में प्रतिष्ठा दी जाती है जो समस्त अनुभवों के गहनतम केंद्र में विद्यमान है। वे भाषा, चिन्ह, चित्र और विचार की सीमाओं से परे हैं। उपनिषद और तंत्र में कहा गया है कि शिव ही चिदानंद हैं, अर्थात शुद्ध चेतना और सर्वोच्च आनन्द, जो तभी अनुभवित होते हैं जब मन अपनी हलचलों को त्यागकर स्थिर हो जाता है और द्वैत समाप्त हो जाता है। यह वही उज्ज्वल सत्ता है जो जगत में व्याप्त होकर भी उससे परे और अछूती रहती है। यही सत्य निर्वाण षटकम् की प्रसिद्ध पंक्ति "शिवोऽहम्" में उद्घोषित है, जिसका पूर्ण भाव है, "मैं शिव हूँ, मैं शुद्ध चेतना हूँ, मैं वह हूँ जो न मन हूँ, न शरीर, न बुद्धि, न प्राण और न ही किसी प्रकार की भावनाएँ।"
शास्त्र बताते हैं कि मनुष्य अपनी सीमित संवेदनाओं में परम को पकड़ने की चेष्टा करता है, इसीलिए शिव के चतुर्भुज या भस्म भूषित रूप की कल्पनाएँ प्रचलित हुईं। पर्वतराज कैलास पर ध्यानमग्न देवता, नीले कंठ के धारक और गले में सर्प लिपटे हुए शिव के चित्र केवल प्रतीक हैं। इन्हें देखकर साधक को स्मरण होना चाहिए कि वास्तविक शिव इससे भी परे हैं। "शिव" शब्द का आंतरिक अर्थ मंगलकारी, शुभ और करुणामय है, किन्तु यह भी एक शब्दात्मक सीमा के भीतर की ध्वनि मात्र है। शैव आगम, उपनिषद और अनेक तांत्रिक ग्रंथों में शिव को सत्-चित्-आनन्द कहा गया है, सत् अर्थात् शाश्वत अस्तित्व, चित् अर्थात् जागरूक चेतना और आनन्द अर्थात् अद्वितीय परमानन्द। वे निरगुण हैं, किसी भी विशेषण, गुण, रूप, आकार या धारणा से परे। अपने आप में अविकार और अपरिवर्तनीय होते हुए भी वही जगत के समस्त परिवर्तन और गति के मूल स्रोत हैं। यही विरोधाभासी प्रतीति शिव का अद्भुत रहस्य है।
विचार की अनिवार्य प्रवृत्ति विभाजन करना है। वह वस्तुओं, भावनाओं और अनुभवों को अलग-अलग खंडों में बाँट देता है। इसी कारण विचार के माध्यम से शिव तक पहुँचना असंभव हो जाता है। शिव इस विभाजन से परे हैं। वे अखण्ड साक्षी हैं, वह मौन ज्योति जो विचारों के विलुप्त होने पर शेष बचती है। अष्टावक्र गीता और अनेक उपनिषद यही उद्घोष करते हैं कि आत्मा शरीर, मन और बुद्धि के क्षेत्र में नहीं है। वह उससे भी पार की सत्ता है जिसे केवल देखना या अनुभवना ही संभव है, क्योंकि वही साक्षी इन सबको देखता है। यदि कोई शिव का ज्ञान केवल तर्क या वाक्चातुर्य से चाहता है, तो यह वैसा ही है जैसे कोई हाथ की अंगुली को ही चन्द्रमा मान ले और वास्तविक चन्द्रमा की सत्ता को न जाने। ध्यान की गहन स्थिरता में, विचारों की ऊहापोह के बीच जो क्षणिक रिक्तता आती है, वहीं शिव का प्रत्यक्ष अनुभव संभव होता है। यही वह क्षण है जब साधक साक्षात् अद्वैत चेतना में प्रवेश करता है।
शिव को "जानना" किसी विषय को उपलब्ध करना नहीं है और न ही यह किसी बाह्य लक्ष्य को प्राप्त करने जैसा है। शिव ज्ञान का सार यही है कि स्वयं "शिव" की अवधारणा को भी एक सीमा मानते हुए उसका अतिक्रमण कर लो। वे न तो कोई विशेष व्यक्ति हैं, न ही किसी नाम या रूप में बंधे हुए हैं। वे तो प्रत्यक्ष अनुभव हैं जो साधक को ध्यान में तब मिलते हैं जब अनुभवक और अनुभवित, साधक और साध्य का भेद समाप्त हो जाता है। विज्ञान भैरव तंत्र स्पष्ट करता है कि शिव को कर्मकांड, यज्ञ या बाहरी आचरण में पूरी तरह नहीं पाया जा सकता। उनकी प्राप्ति प्रत्यक्ष साधना में है, श्वास की पूर्ण सजगता, शांत मौन में स्थित होना और भीतर से समर्पण कर देना। जब साधक और उसका ध्यान एक हो जाते हैं, जब देखने वाला और देखी जाने वाली वस्तु मिट जाती है तब जो शेष बचता है वही शिव का नृत्य है। अद्वैत चेतना का यही प्रस्फुटन ही उनका प्रकट लीला है।
त्रिमूर्ति में शिव को "संहारकर्ता" कहा जाता है, लेकिन यह संहार विनाश या अराजकता का प्रतीक नहीं है। शिव का संहार अहंकार और भ्रांति के आवरण का अंत है। वे उस सत्ता के प्रतीक हैं जो तब विद्यमान रहती है जब मिथ्या का आवरण हट जाता है। कश्मीर शैव दर्शन और शैव सिद्धांत दोनों शिव को अस्तित्व की पूर्णता और शून्यता, दोनों रूपों में उद्घाटित करते हैं। यह शून्य कोई साधारण रिक्तता नहीं बल्कि पावन शून्य है, जो एक ओर सब कुछ मिटाता है और दूसरी ओर समस्त सृष्टि को जन्म भी देता है। यह विरोधाभास शिव के सौंदर्य और रहस्य का मूल है। अभाव और परिपूर्णता का यह अद्भुत मेल ही संसार को जीवनशील बनाए रखता है।
प्राचीन ऋषियों ने कहा: "मौन रहो और जानो।" मौन ही सत्य की भाषा है। शिव वही अनंत निःशब्द सत्ता हैं जो ध्वनि के उत्पन्न होने से पहले, उसी ध्वनि में और उसके मिटने के बाद भी अडिग रहती है। यही आत्मज्योति है, यही जीवन का अंतःकरण है। उपासना, विचार और विश्लेषण जब सब लय हो जाते हैं तब केवल वह प्रत्यक्ष अनुभव शेष रहता है: "मैं वही हूँ।" यह ज्ञान कोई वैचारिक व्याख्या नहीं बल्कि प्रत्यक्ष प्रतिपत्ति है। उस मौन में शिव किसी विश्वास या कल्पना का विषय नहीं रहते, वे वहीं मिलते हैं जहाँ आत्मा स्वयं अपनी नितांत शुद्ध चेतना को पहचानती है। वहाँ कोई साधना "किया हुआ कर्म" नहीं रह जाता, केवल होना रह जाता है और वही होना शिव है।
शिव का सच्चा अर्थ प्रत्येक आत्मा को बाहरी नाम, रूप और पहचान से मुक्त करके गहन स्थिरता और मौन में ले जाना है। यह आह्वान हर साधक को भीतर की यात्रा पर प्रेरित करता है। इस पथ पर जो मौन और चिदानंद का अनुभव है, वही अद्वितीय सत्य है, संसार के परे, किंतु प्रत्येक अस्तित्व के हृदय में गहराई से उपस्थित।
प्रश्न 1: शिव को केवल देवता के रूप में क्यों नहीं माना जाता?
उत्तर: शिव को केवल रूप या व्यक्तित्व तक सीमित नहीं किया गया है। वे शून्यता और मौन के प्रतीक हैं जो विचार, भाषा और प्रतीकों से परे हैं। उनका अर्थ शुद्ध चेतना और चिदानंद है, जो हर अनुभव के केंद्र में विद्यमान है।
प्रश्न 2: "सत्-चित्-आनन्द" शिव के स्वरूप को किस प्रकार दर्शाता है?
उत्तर: सत् उनके शाश्वत अस्तित्व का, चित् उनकी सर्वव्यापी चेतना का और आनन्द उनकी अखण्ड आनन्दमयी सत्ता का प्रतीक है। ये तीनों मिलकर शिव के निराकार और निरगुण स्वरूप का चित्रण करते हैं।
प्रश्न 3: अष्टावक्र गीता और उपनिषद शिव के विषय में क्या बताते हैं?
उत्तर: ये ग्रंथ कहते हैं कि आत्मा शरीर, मन और बुद्धि नहीं है बल्कि उन्हें देखने वाली साक्षी सत्ता है। विचारों के शांत हो जाने पर जिस स्थायी चेतना का अनुभव होता है, वही शिव हैं।
प्रश्न 4: "विज्ञान भैरव तंत्र" शिव की प्राप्ति के लिए क्या मार्ग सुझाता है?
उत्तर: यह ग्रंथ बताता है कि शिव को यज्ञ और कर्मकांड से नहीं जाना जा सकता। श्वास की जागरूकता, मौन और समर्पण जैसे आंतरिक अभ्यासों से ही शिव प्रकट होते हैं।
प्रश्न 5: शिव को "संहारकर्ता" क्यों कहा जाता है और इसका गहरा अर्थ क्या है?
उत्तर: शिव का संहार बाह्य विनाश नहीं बल्कि अहंकार, भ्रम और मिथ्या का अंत है। वे भूल और सीमाओं को मिटाकर शुद्ध सत्य, पावन शून्यता और सत्तात्मक पूर्णता का प्रकट करते हैं।

अनुभव: 27
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