By पं. सुव्रत शर्मा
धर्मबोध, कर्मयोग, स्थिर बुद्धि और समर्पण की चरणबद्ध साधना
महाभारत केवल युद्धकथा नहीं है। यह मानव मन के भय और संदेह को पहचानने और साधने की श्रेष्ठ विद्या है। यह ग्रंथ बताता है कि डर और शंका को अंधे साहस से नहीं बल्कि स्पष्ट धर्मबोध, आत्मसंयम और कर्म के अभ्यास से रूपांतरित किया जा सकता है।
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।
यह संदेश भीतर की शक्ति को जगाने की प्रेरणा है। जो मन संभला, वही मित्र बना। जो मन बिखरा, वही बाधा बना।
महाभारत के निर्णायक क्षणों में भय और संदेह पात्र बन कर खड़े रहते हैं। अर्जुन का शंकित मन रणभूमि में जमा रहता है। धृतराष्ट्र का मोह सत्य से भागता है। पर कहीं न कहीं भीष्म का धैर्य, विदुर का विवेक और कृष्ण की वाणी पथ प्रकाशित करती है।
भय का बड़ा कारण धर्मभ्रम होता है। अर्जुन को मृत्यु का भय नहीं था, उन्हें अधर्म का भय था कि परिजन के विरुद्ध शस्त्र क्यों उठे। कृष्ण ने उन्हें स्वधर्म का बोध कराया। जब उद्देश्य स्पष्ट हो तब भय पकड़ ढीली कर देता है।
जीवन में भी उद्देश्य का धुंधला होना शंका बढ़ाता है। जो कर्म अपने मूल मूल्यों से जुड़ता है, उसमें साहस अपने आप आता है। धर्मबोध साहस का स्रोत है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। फलाभिलाष भय को बढाता है। हानि का डर, अपयश का डर, असफलता का डर। जब मन केवल कर्म की शुद्धि पर ठहरता है तब चित्त स्थिर हो जाता है।
यह निष्क्रियता नहीं है। यह पूर्ण सहभाग है, पर परिणाम के मोह से मुक्त होकर। फल से विरक्ति, एकाग्रता को जन्म देती है। संशय निर्णय में बदल जाता है।
धृतराष्ट्र और दुर्योधन ने सत्य से आँख चुराई। भय और अंहकार बढ़े। भीष्म और विदुर ने कड़वे सत्य को स्वीकारा। वे बोझिल थे, पर स्थिर थे।
समस्या से मुँह मोड़ना उसे बड़ा करता है। सत्य का सामना करना साहस बढ़ाता है। रिश्तों में हो या कर्तव्य में, सत्य-दृष्टि भय को घोल देती है।
जिसने स्वयं को साध लिया, उसे भय साध नहीं पाता। इंद्रियों का निग्रह, प्राण का संतुलन और मन का अभ्यास, यह स्थिर बुद्धि का पथ है। कृष्ण की वाणी में स्थिता प्रज्ञता का यही सार है।
अतिरिक्त उत्तेजना निर्णय को डिगाती है। संयम मन को आधार देता है। इस आधार पर ही साहस टिका रहता है।
अर्जुन का विषाद योग शंका से भरा था, पर ज्ञान से वह प्रकाश में बदला। अज्ञान भय को पोषित करता है। जो समझ बढ़ाता है, वह डर को गलाता है।
आध्यात्मिक हो, नैतिक हो या व्यवहारिक, सम्यक ज्ञान दिशा देता है। जब अर्थ समझ में आता है तब मन शांति पाता है।
कर्म और चरित्र का बल संग से बढ़ता है। युधिष्ठिर ने कृष्ण और भ्राताओं के संग में स्थिरता पाई। दुर्योधन ने शकुनी के संग में अहंकार और भय दोनों बढ़ाए।
साहस संक्रामक है, भय भी। विवेकी और धरातल पर टिके लोगों की संगति से संकल्प प्रबल होता है। अकेला मन शंका में उलझता है, सही संग उसे उठा लेता है।
समर्पण पलायन नहीं है। यह अहं का भार उतार कर कर्तव्य में उतरना है। जब अर्जुन ने अहं छोड़ा तब भय भी छूटा। तब उद्देश्य के लिए कार्य सहज हुआ।
स्वयं को उच्च सत्ता के उपकरण के रूप में देखना हानि के डर को हर लेता है। समर्पण मन को क्या होगा से मुक्त करता है। तब कर्म स्वच्छ हो जाता है।
पाठ | महाभारत संदर्भ | आज का अभ्यास |
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धर्म स्पष्ट करें | अर्जुन का संकोच और कृष्ण की उपदेश | एक पंक्ति में अपना उद्देश्य रोज़ लिखें |
कर्म पर ध्यान दें | गीता का कर्मयोग | दिन की तीन प्राथमिकताएँ तय करें |
सत्य का सामना करें | विदुर नीति और भीष्म का धैर्य | कठिन वार्तालाप की तारीख तय करें |
आत्मसंयम साधें | स्थिता प्रज्ञता का बोध | प्राणायाम तीन चक्र और एकांत में दस मिनट बैठें |
ज्ञान से शंका हरें | विषाद योग से ज्ञान योग | एक अध्याय पढ़ें और तीन बिंदु लिखें |
साहसी संगति चुनें | कृष्ण संग युधिष्ठिर | सप्ताह में एक मार्गदर्शक संग संवाद करें |
समर्पण से आगे बढ़ें | अर्जुन का शरणागति | दिन के अंत में जो हुआ उसे समर्पित लिखें |
डर का प्रकार | जड़ कारण | उपाय सूक्ष्म |
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असफलता का डर | फल मोह | प्रक्रिया आधारित लक्ष्य अपनाएँ |
अपमान का डर | अहं का भार | कृतज्ञता सूची और सेवा का एक कार्य |
हानि का डर | अनिश्चितता | जोखिम को छोटे हिस्सों में बाँटकर आरंभ करें |
निर्णय का डर | भ्रम और सूचना कमी | जानकारी जुटाएँ और सीमा समय तय करें |
संबंध टूटने का डर | संवाद की कमी | स्पष्ट, दयालु और समयबद्ध संवाद अभ्यास करें |
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत।
स्वयं को उठाइए। स्वयं को गिराइए नहीं। मन ही मित्र है और मन ही बाधा।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
अधिकार केवल कर्म पर है। फल पर नहीं। फल का मोह चित्त को डिगाता है।
प्रश्न 1: क्या भय को पूरी तरह समाप्त किया जा सकता है
उत्तरा: भय संकेत है, शत्रु नहीं। उद्देश्य, अभ्यास और ज्ञान से यह मार्गदर्शक बन सकता है।
प्रश्न 2: कर्म पर ध्यान का व्यावहारिक तरीका क्या है
उत्तरा: प्रक्रिया आधारित लक्ष्य तय करें, समय सीमाएँ रखें और दिन के अंत में केवल प्रयास का लेखा रखें।
प्रश्न 3: आत्मसंयम शुरू कैसे करें
उत्तरा: प्राणायाम, इंद्रिय नियम और नियमित एकांत बैठना। छोटे और निरंतर कदम बहुत प्रभावी होते हैं।
प्रश्न 4: समर्पण और पलायन में क्या अंतर है
उत्तरा: समर्पण जिम्मेदारी के साथ होता है। पलायन जिम्मेदारी से भागना होता है। समर्पण कर्म को स्वच्छ बनाता है।
प्रश्न 5: संगति बदलना कठिन लगे तो क्या करें
उत्तरा: पहले समय का अनुपात बदलें। दिन में पंद्रह मिनट विवेकी संग जोड़ें। शेष स्वतः रूपांतरित होता है।
अनुभव: 27
इनसे पूछें: विवाह, करियर, संपत्ति
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि., ओडि
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