By पं. नीलेश शर्मा
सुख, संतान और पितृ कृपा की कथा जो व्रत, श्रद्धा और सेवा से जीवन परिवर्तन का संदेश देती है।
आषाढ़ अमावस्या हिन्दू पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है, जिसे अत्यंत शुभ और पुण्यकारी माना जाता है। यह दिन विशेष रूप से पितरों की शांति, तर्पण, दान-पुण्य और आत्मिक शुद्धि के लिए समर्पित है। मान्यता है कि आषाढ़ अमावस्या पर किए गए स्नान, दान और पितृ तर्पण से जीवन की नकारात्मकता दूर होती है, पितृ दोष शांत होते हैं और परिवार में सुख-समृद्धि तथा मानसिक शांति का संचार होता है। वैदिक ज्योतिष में भी इस तिथि का विशेष महत्व है, क्योंकि सूर्य और चंद्रमा के संयोग से उत्पन्न ऊर्जा आत्मिक उत्थान और पूर्वजों की कृपा प्राप्ति का अद्भुत अवसर प्रदान करती है।
बहुत समय पहले की बात है, एक नगर में एक ब्राह्मण अपनी धर्मपरायण पत्नी के साथ रहता था। दोनों ही भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। उनके घर में धन, अन्न, वस्त्र और संपत्ति की कोई कमी नहीं थी, लेकिन एक अभाव उन्हें भीतर से कचोटता था-संतान का सुख। वर्षों से वे दोनों भगवान से संतान की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते थे, परंतु भाग्य ने अब तक उनकी गोद सूनी ही रखी थी। संतानहीनता का दुख उनके जीवन में गहरा खालीपन और निराशा भर देता था।
एक दिन ब्राह्मण ने ठान लिया कि वह संतान प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या करेगा। उसने अपनी पत्नी से विदा ली और वन की ओर प्रस्थान किया। घने वन में जाकर उसने एक वटवृक्ष के नीचे आसन जमाया और तपस्या में लीन हो गया। दिन-रात, धूप-बारिश, सर्दी-गर्मी की परवाह किए बिना वह केवल भगवान का ध्यान करता रहा। वर्षों बीत गए, शरीर दुर्बल हो गया, लेकिन संतान सुख की प्राप्ति नहीं हुई। निराशा ने मन को घेर लिया और एक दिन ब्राह्मण ने जीवन त्यागने का निश्चय कर लिया।
उसने वटवृक्ष की डाल पर फांसी का फंदा बांधा और जैसे ही वह अपने गले में डालने ही वाला था, तभी वहां दिव्य प्रकाश फैला और एक दिव्य स्त्री प्रकट हुईं। वे थीं सुख अमावस्या देवी। देवी ने करुणा से कहा, "हे ब्राह्मण, तुम्हारे भाग्य में सात जन्मों तक संतान नहीं है, परंतु मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं। मैं तुम्हें दो कन्याओं का वरदान देती हूं। अपनी पत्नी से कहो कि वह एक वर्ष तक श्रद्धा से सुख अमावस्या का व्रत रखे और हर अमावस्या को एक कटोरी चावल भरकर दान करे।"
ब्राह्मण देवी के आदेश को लेकर घर लौटा और अपनी पत्नी को सब विस्तार से बताया। पत्नी ने श्रद्धा, नियम और संयम के साथ सुख अमावस्या व्रत करना शुरू किया। हर अमावस्या को स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ और चावल दान करती रही। कुछ समय बाद उनके घर दो सुंदर कन्याओं का जन्म हुआ, जिनका नाम रखा गया-अमावस्या और पूनम।
समय के साथ दोनों बेटियां बड़ी हुईं। अमावस्या धार्मिक, विनम्र और सेवा भाव से परिपूर्ण थी। वह माता-पिता की सेवा, भगवान की पूजा और दान-पुण्य में मन लगाती थी। उसके घर में सुख-समृद्धि, शांति और आनंद का वातावरण था। दूसरी ओर पूनम भौतिक सुखों, दिखावे और आलस्य में डूबी रहती थी। धर्म-कर्म से दूर, उसका घर दरिद्रता और अशांति से घिरा था।
एक दिन अमावस्या को पता चला कि उसकी बहन पूनम बहुत दुखी है, उसके घर में धन की कमी, कलह और संतान का अभाव है। अमावस्या अपनी बहन के लिए ढेर सारा सामान लेकर उसके घर गई और उसे सुख अमावस्या व्रत की महिमा समझाई। उसने पूनम को बताया कि कैसे श्रद्धा, संयम और नियम से व्रत करने से उसके जीवन में सुख-शांति आई। पूनम ने भी बहन की बात मानी, एक वर्ष तक श्रद्धा और नियम से व्रत किया, अमावस्या के दिन चावल दान किए। कुछ ही समय में उसके घर में भी सुख-समृद्धि लौट आई और उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
आषाढ़ अमावस्या की यह कथा न केवल धार्मिक परंपरा, बल्कि जीवन के हर मोड़ पर सकारात्मक सोच, आस्था और सेवा का संदेश देती है। यह हमें सिखाती है कि सच्ची श्रद्धा, नियम और सेवा से असंभव भी संभव हो जाता है और पितरों की कृपा से जीवन में सुख-शांति और समृद्धि का संचार होता है।
अनुभव: 25
इनसे पूछें: करियर, पारिवारिक मामले, विवाह
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि.
इस लेख को परिवार और मित्रों के साथ साझा करें