By पं. अभिषेक शर्मा
संयम, श्रद्धा और आत्मकल्याण का प्रेरक प्रसंग
एक प्रेरक पौराणिक कथा जो संयम, श्रद्धा और आत्मकल्याण की ओर ले जाती है
निर्जला एकादशी न केवल एक धार्मिक व्रत है, बल्कि यह आत्म-अनुशासन, भक्ति और मोक्ष की यात्रा का प्रतीक भी है। यह कथा हमें महाभारत के बलशाली योद्धा भीमसेन की आंतरिक संघर्ष और ईश्वरप्राप्ति की आकांक्षा से जोड़ती है। जहाँ अर्जुन ज्ञान के प्रतीक थे, वहीं भीम भौतिक शक्ति और प्रकृति के प्रतीक माने जाते हैं। पर जब भीमसेन ने मोक्ष की राह पर चलने का निश्चय किया, तब उन्होंने भी अपनी सबसे बड़ी कमजोरी - भूख - पर विजय प्राप्त की।
एक बार ऋषि वेदव्यास ने पांडवों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए एकादशी व्रत का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक पक्ष की एकादशी को उपवास करना चाहिए, जिससे चित्त शुद्ध होता है और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त होती है। माता कुन्ती, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव सभी श्रद्धा से इन व्रतों का पालन करने लगे।
लेकिन भीमसेन चिंतित थे। उन्होंने व्यासजी से निवेदन किया -
"गुरुवर! मैं सत्य कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जाती। मेरे भीतर 'वृक अग्नि' (भयानक भूख की अग्नि) सदा जलती रहती है। मैं दिन में एक बार भी बिना भोजन के नहीं रह सकता। तो फिर महीने में दो बार एकादशी का उपवास कैसे कर पाऊँगा?"
भीमसेन केवल अपनी भूख से जूझ नहीं रहे थे, बल्कि वह आत्मिक कल्याण की भी खोज कर रहे थे। उन्होंने व्यासजी से विनती की कि -
"हे पितामह! यदि मैं वर्षभर का उपवास नहीं कर सकता, तो कृपया ऐसा एक व्रत बताइए जिसे एक बार करके मैं संपूर्ण पुण्य प्राप्त कर सकूं। मुझे मोक्ष का मार्ग दिखाइए।"
व्यासजी ने गंभीरता से उत्तर दिया -
"हे भीम! ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की जो एकादशी आती है, उसका नाम निर्जला एकादशी है। इस दिन जल भी नहीं पिया जाता। यदि तुम इस एकादशी को सूर्योदय से लेकर अगले दिन के सूर्योदय तक जल और अन्न का त्याग करके व्रत करोगे, तो यह व्रत तुम्हें वर्षभर की 24 (या अधिकमास सहित 25) एकादशियों के बराबर फल देगा।"
यह व्रत अत्यंत कठिन है - केवल कुल्ला या आचमन की अनुमति है, लेकिन पीने योग्य जल लेना भी व्रत भंग कर सकता है। द्वादशी को ब्राह्मणों को दान देकर, विशेषकर जलयुक्त कलश, छाता, वस्त्र, और मिठाई प्रदान करके, इस व्रत का समापन होता है।
भीमसेन ने व्यासजी की आज्ञा मानकर संकल्प लिया -
"मैं इस निर्जला एकादशी का व्रत करूंगा, चाहे कितना भी कष्ट क्यों न हो। यदि यह व्रत मुझे मोक्ष की ओर ले जा सकता है, तो मैं अपनी भूख की अग्नि को भी जीत लूंगा।"
वह दिन भी आया। तपस्या के उस दिन भीम ने न जल पिया, न अन्न लिया। मन में विष्णु का स्मरण करते हुए उन्होंने रात जागरण में बिताई। अगली सुबह ब्राह्मणों को स्नान करवाकर जल से भरे कलश, वस्त्र, छाता और मिठाई का दान दिया। फिर स्वयं प्रसाद लिया।
व्यासजी ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा -
"हे भीम! तुमने जो कठिन व्रत किया है, उससे न केवल तुम्हें, बल्कि सौ पूर्वजों और सौ आनेवाली पीढ़ियों को भी स्वर्ग प्राप्त होगा। भगवान विष्णु स्वयं ऐसे भक्त को अपने धाम में स्थान देते हैं।"
इसीलिए इस एकादशी को भीमसेनी एकादशी या पांडव एकादशी भी कहा जाता है। यह दिन केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि संयम, तपस्या और भक्ति का महान उदाहरण बन गया।
निर्जला एकादशी केवल उपवास नहीं, बल्कि जीवन के प्रति दृष्टिकोण है। यह हमें सिखाता है कि यदि एक बलवान और भोगी पुरुष भी अपनी इंद्रियों पर संयम रख सकता है, तो कोई भी व्यक्ति आत्मकल्याण की दिशा में बढ़ सकता है। यह दिन तप और त्याग का प्रतीक बन चुका है।
इस दिन जो व्यक्ति श्रद्धा से कथा सुनता है, भगवान विष्णु की पूजा करता है, ब्राह्मणों को दान देता है, और संकल्प के साथ उपवास करता है - वह निश्चय ही पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक प्राप्त करता है।
भीमसेन की निर्जला एकादशी की यह कथा केवल पौराणिक प्रसंग नहीं है, यह हर मनुष्य की उस यात्रा को दर्शाती है जिसमें हम अपनी सीमाओं, इच्छाओं और कमजोरी से लड़ते हुए, ईश्वर की ओर बढ़ते हैं। यह व्रत आत्म-अनुशासन और भक्ति का जीवंत प्रतीक है - जो मन को शुद्ध करता है, आत्मा को बल देता है और जीवन को दिव्यता की ओर अग्रसर करता है।
अनुभव: 19
इनसे पूछें: विवाह, संबंध, करियर
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि., ओडि, उ.प्र.
इस लेख को परिवार और मित्रों के साथ साझा करें