By पं. नीलेश शर्मा
क्षेत्रीय संस्कृति, कला, भक्त-परंपरा में श्रीकृष्ण के विविध, आत्मीय और वैश्विक रूप
इतिहास और संस्कृति की बदलती लहरों में शायद ही कोई अन्य देवता कृष्ण जितनी दूरियाँ तय कर, इतने विविध रंगों में ढल सका हो। क्या वजह है कि कृष्ण कभी शाही दरबार में, कभी गाँव की गलियों में, कभी निर्जन आश्रम या बाज़ार में उतनी ही सहजता से रच-बस जाते हैं? हर क्षेत्र, भाषा, समाज, पर्व-त्योहार और कला में क्या कृष्ण का एक नया रूप, नई कथा और नया पारिवारिक रिश्ता दिखाई देता है? आइये, प्रश्नों के संदर्भ में, उस असंख्यरंगी "वैश्विक-कृष्ण" के जीवंत लोक-रूपों का अन्वेषण करें।
यहाँ कृष्ण 'विठोबा' या 'विठ्ठल' बनकर चंद्रभागा नदी तट की ओर टकटकी लगाए खड़े रहते हैं, नंगे पाँव, कमर पर हाथ, मानो हर भक्त के इंतज़ार में हों। पुंडलिक की सेवा-भक्ति से अभिभूत होकर कृष्ण स्वयं 'ईंट' पर खड़े हुए, भक्त के घर में ईश्वरत्व प्रतिष्ठित किया, इससे हर गृहस्थ जीवन, श्रम और साधानजगत का भी दिव्यीकरण होता है।
हर साल लाखों लोग पैदल चलते हैं, वारी यात्रा में, अभंग गाते, नृत्य करते, जाति-धर्म-लिंग की दीवारें टूटी जाती हैं। भजन-संकीर्तन, समूह जीवन और स्मरण, पूजा और मंदिर से ज़्यादा बलशाली हो जाते हैं; यहाँ रामदासी संतों की वाणी से विठोबा दीन-दुखियों के परम-सखा बन जाते हैं।
तुकाराम, ज्ञानेश्वर, एकनाथ जैसे संतों ने विठोबा को दयालु, सहज, गँवई जीवन के सहचर, जीवन की छोटी-बड़ी समस्याओं में हिस्सेदार और संगीत-रसिक, हर रूप में चित्रित किया।
सुबह की तुलसी पूजा, साँझ के भजन, खेतों में काम करने वाले किसान के गीत, रसोई की कथाएँ, विठोबा के बिना महाराष्ट्र का कोई परिवेश अधूरा नहीं।
सात वर्षीय कृष्ण, काले पत्थर की प्रतिमा के रूप में, गोवर्धन पर्वत उठाते हुए, नाथद्वारा पहुँचे। यह प्रतिमा स्वयं मथुरा से मुगल आक्रमण से बचते-बचाते आई, कृष्ण-भक्ति की जिजीविषा और चमत्कृत परंपरा का बड़ा उदाहरण।
वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित इस परंपरा में श्रीनाथजी को "सेवक" रोज़ कपड़े पहनाते, स्नान कराते, खिलाते-पिलाते, सुलाते, पूजा नहीं, घरेलू लगाव व सहजता की पराकाष्ठा। हर दर्शन में बदलते कपड़े, चित्र, पुष्पमाला, मौसमी भोजन, सब परिवार के बच्चे की तरह।
श्रीनाथजी की लीलाएँ पिचवाई चित्रों और मूर्त-भोग में रंग-बिरंगे रूप में दिखती हैं; मिठाइयाँ, नमकीन, फल, हर तीज-त्योहार, हर ऋतु के लिए अलग भोग।
यहाँ दरबार से आम श्रद्धालु तक, सब एक साथ पूजा में, सङ्गीत, त्यौहार और दान में भाग लेते हैं, "लड्डू गोपाल" सभी के हैं।
कृष्ण यहाँ आदिवासी, द्रविड़ और वैदिक शिल्प का संगम हैं, चौड़ी आँखें, गोल आकार, भाई-बहन के साथ विराजते। उनकी स्थूल, अद्भुत छवि में बंधन-रहित, सर्वसमावेशी भावनाएँ हैं।
रथयात्रा में अछूत, दलित, अमीर-गरीब, महिला-पुरुष, सब मिलकर काष्ठ रथ खींचते हैं; यह प्रभु की करुणा और लोक-जड़ता तोड़ने का सशक्त रूप है।
दिनभर के अनेकों भोग, बड़े लंगर में हज़ारों को भोजन, लोकगीत और गीता-गोविन्द की संध्या, यहाँ पूजा में तांत्रिक, वैदिक, लोक सब रंग मिलकर जगन्नाथ को ‘लोक-संपर्क’ का देवता बनाते हैं।
जयदेव, सलबेगा, ग्रामीण कलाकार, इनकी कृष्ण के प्रति रचनाएँ, मंदिर की परंपरा और चित्त को भव-विभोर करती हैं।
शंकरदेव, माधवदेव जैसे संतों ने नामघर, सामूहिक गायन, प्रार्थना, नाटक, की शुरुआत की। यहाँ कृष्ण मूर्तिकार नहीं, किंतु समूहगान, कीर्तन की शक्ति हैं।
भक्ति, प्रार्थना, नाट्य में हर किसी को समान भागीदारी; किसी की जाति या सामाजिक पृष्ठभूमि नहीं देखी जाती।
सत्रों में कृष्ण नाम के काव्य, गायन, नृत्य, रस-नाट्य, सभी अस्तित्वमान। "कृष्ण" यहाँ मूर्तिहीन, भाव, समूह और संगीत के माधुर्य में सजीव।
आळवारों ने विष्णु, कृष्ण, राम सबका संगम रचा। कृष्ण का बालपन, उद्धार, शरारत, कृष्णलीला उनकी दिव्यप्रबंधम्, अष्टपदी और गीतों में जीवन्त है।
चेन्नई (पार्थसारथि), उज्जैन, तिरुपति, उडुपी: शंख, चक्र, किरीट, बालक, यौवन, पालक, हर भूमिका में कृष्ण को सजे-संवरे, राजसी और पूज्य देखा जाता है।
कार्नाटिक संगीत, भरतनाट्यम, कथकली आदि में कृष्ण की लीलाएँ, चमत्कार और कथाएँ समय के साथ-साथ बढ़ती गईं, उत्सवों व मंदिर-लोकजीवन में कृष्ण का जश्न है।
गुरुवायूर में कृष्ण, उत्तर-भारतीय शिल्प और केरल की लोक-श्रद्धा का संगम, मां यशोदा ने जिनका पूजन किया, वही प्रतिमा यहां सिंहासन पर बैठी है।
मेलपथूर नारायण भट्टथिरी ने भागवत का सार 'नारायणीयम' लिखा, माना जाता है, यह सुनने/पढ़ने से मन, देह और आत्मा को आरोग्यता मिलती है।
संगीत कार्यक्रम, नृत्य, अन्नप्रसाद, हर कोई, चाहे जाति-दल, आता है, भोजन ग्रहण करता है, कृष्ण की दया और सुलभता हर जगह है।
व्यापारी, साधु, कवि, कम्बोडिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया में कृष्ण को लेकर गए: वहाँ वे देवाभिनायक, दानव-विजेता, रणनीतिकार, महामंत्री के रूप में अतिप्रिय बन गए।
गोप, गाय, राधा, संगीत की कथाएँ दुर्लभ; कृष्ण मुख्यतः महाकाव्य नायक, राजाओं के सलाहकार, धर्म के निर्वाहकर्ता, युद्धचातुर्य के प्रतीक हैं।
अंगकोरवाट, रामाकियन, महाभारत आधारित नाटकों, मिथकीय गाथाओं में कृष्ण का स्वरूप, नायकत्व, नीति और शक्ति का द्योतक।
कृष्ण कभी औपचारिक नहीं, विठोबा, श्रीनाथजी, जगन्नाथ, गुरुवायूरप्पन, नामघर, आळवार के विष्णु, महाकाव्य नायक, हर रूप में आत्मीय, निकट, समाज के दिल के अनुरूप अपारदर्शी प्रभु।
हर समाज ने कृष्ण के स्वरूप में अपना दर्पण देखा, फिर भी राग, प्रेम, सेवा, क्षमा, हास्य-संवाद, हर जगह कृष्ण के युग-समन्वय का जादू चलता रहा।
सिन्धु के जीर्ण मंदिरों से लेकर गंगा-जमुनी लोकगीतों तक, दक्षिण के संस्कृतिकोश, असम के संगीत, गोशालाओं, वाणिज्य पथों, पर्व-त्योहार, कला-संग्रहालयों में, हर जगह, हर श्रद्धा, हर जीवन-धारा में कृष्ण मिल जाते हैं।
प्रश्न १: पंढरपुर के विठोबा महाराष्ट्र की भक्ति को कैसे नया आयाम देते हैं?
उत्तर: विठोबा घर-घर, खेत-खलिहान, वारी, संत काव्य के माध्यम से भक्ति को संस्कार, जाति, वर्ग से ऊपर उठाकर हर व्यक्ति तक लाते हैं।
प्रश्न २: गृहीत-गोपाल श्रीनाथजी भारतीय समाज में किस तरह भक्ति-संस्कृति को सशक्त बनाते हैं?
उत्तर: श्रीनाथजी की सेवा, परिवार का भाव, दैनिक उत्सव, पाकशैली, कला-संस्कार ने भक्ति को सामाजिक समरसता, बंधुत्व और सौंदर्य-बोध से जोड़ दिया।
प्रश्न ३: ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर में विविध परंपराओं का संगम कैसे देखने को मिलता है?
उत्तर: जगन्नाथ पूजा में लोक, जनजातीय, वैदिक, मुस्लिम (सलबेगा) तत्त्व समान अधिकार और सामाजिक दया, समरसता का प्रकाश-स्तम्भ हैं।
प्रश्न ४: असम के नामघर में मूर्तिहीन भक्ति का महत्व क्यों अधिक है?
उत्तर: सामूहिक गायन, कीर्तन, नाटक, मूर्ति के बिना ही काव्य, संगति और समूह का अनुभव जीवन्त कृष्ण-भक्ति का गूढ़ रूप है।
प्रश्न ५: दक्षिण-पूर्व एशिया में कृष्ण किस मुख्य छवि में प्रतिष्ठित हैं?
उत्तर: वहाँ कृष्ण मुख्यतः “वासुदेव” के रूप में, रणनीति-विद, नीति-नायक, युद्ध-प्रेरक, गोप-गोपियों, संगीत के वर्णन गौण हैं।
अनुभव: 25
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