By पं. सुव्रत शर्मा
समर्पण, भक्ति और मोक्ष की जीवंत कथा जो भागवत पुराण से प्रेरित है
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र केवल एक धार्मिक पाठ नहीं, बल्कि ईश्वर में संपूर्ण समर्पण, आस्था और अंतर्मन की पुकार का जीवंत प्रतीक है। यह स्तोत्र भागवत पुराण के आठवें स्कंध में वर्णित गजेंद्र मोक्ष की कथा से उत्पन्न हुआ है, जिसे स्वयं शुकदेव ऋषि ने राजा परीक्षित को सुनाया था। इसमें केवल एक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष नहीं, बल्कि मनुष्य के अंतर्मन में चल रही आशा और भय, संकल्प और समर्पण की गूंज समाहित है।
श्रीमद्भागवतान्तर्गतगजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि । जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम। पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं। योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम। अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षतेस आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशोलोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु। तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरंयस्तस्य
पारेऽभिविराजते विभुः।।
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम। यथा
नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतोदुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥
अर्थ: श्री शुकदेव जी कहते हैं - इस प्रकार (गजेंद्र ने) स्थिर बुद्धि से अपने मन को हृदय में एकाग्र कर लिया और पूर्वजन्म में सीखी हुई परम जप्य वस्तु (भगवान का स्तुति मंत्र) का जप करने लगा। वह कहने लगा: "ॐ नमो भगवते - उस परम पुरुष को नमस्कार है, जो चिदात्मा (चैतन्यस्वरूप) है, समस्त विश्व के कारण हैं, आदिबीजस्वरूप पुरुष हैं, परमेश्वर हैं - हम उनका ध्यान करते हैं। जिसमें यह जगत स्थित है, जिससे उत्पन्न है, जिसके द्वारा यह बना है, जो स्वयं यह सब कुछ है और जो इस सबसे परे भी है - उस स्वयम्भू परमात्मा की मैं शरण लेता हूँ। जो अपने आत्मस्वरूप में इस जगत को अपनी माया से कभी प्रकाशित करता है, तो कभी छिपा देता है, जिसे न जानने वाला अविद्याच्छन्न दृष्टिवाला जीव और ज्ञानी साक्षी रूप आत्मा दोनों देखते हैं - वह परम परात्पर आत्ममूल परमात्मा मेरी रक्षा करें। जब काल के प्रभाव से सब लोकों के रचयिता, पालक आदि पंचत्व को प्राप्त हो जाते हैं, तब अंधकारमय, गंभीर, अगम्य तामसी अवस्था रह जाती है - उसके पार जो विभु (सर्वव्यापक) परमात्मा प्रकाशमान रहते हैं, वे ही वास्तव में परम हैं। जिनके चरणों को देवता और ऋषिगण भी नहीं जान पाते, तो फिर साधारण प्राणी की क्या बात है! जैसे नट (नाटक करने वाला) अपनी आकृतियों से विचित्र चेष्टाएँ करता है, वैसे ही जिनकी गति अलंघ्य है - वे परमात्मा हमारी रक्षा करें।"
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलमविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः। चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वनेभूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वान नाम रूपे गुणदोष एव वा। तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यःस्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये। अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने। नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता। नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे। निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे। पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे। असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥
नमो नमस्ते खिल कारणायनिष्कारणायद्भुत कारणाय। सर्वागमान्मायमहार्णवायनमोपवर्गाय परायणाय॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपायतत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय। नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
अर्थ: जो मुनिजन समस्त आसक्ति त्याग कर वन में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए, सभी प्राणियों में परमात्मा को देख कर उन्हें ही अपना परम मित्र मानते हैं - उनके पवित्र चरण ही मेरी परम गति हैं। जिनका न जन्म है, न रूप, न नाम, न कर्म, फिर भी जो अपनी माया से इन सबका आभास रचते हैं-ऐसे परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जो ब्रह्मस्वरूप, अनंत शक्तियों से युक्त, निराकार होते हुए भी अनेक रूपों से प्रकट होते हैं, और जिनका कर्म अद्भुत है - उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ। जो आत्मा के प्रकाशक, साक्षी रूप परमात्मा हैं और वाणी, मन, चित्त से परे हैं - उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। जो सत्त्वगुण से मिलते हैं, निष्काम कर्म से जाने जाते हैं, मोक्ष के स्वामी और निर्वाण सुख के दाता हैं - उन्हें बारम्बार प्रणाम है। जो ज्ञानस्वरूप, निर्गुण, समभावी, साक्षी, क्षेत्रज्ञ और प्रकृति के मूल कारण हैं - उन परमात्मा को मैं वंदन करता हूँ।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणायमुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय। स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय। मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभावितायज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामाभजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति। किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययंकरोतु मेदभ्रदयो विमोक्षणम॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थवांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः। अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलंगायन्त आनन्न्द समुद्रमग्नाः॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम। अतीन्द्रियं सूक्षममिवातिदूर-मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः। नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥
यथार्चिषोग्नेः सवितुर्गभस्तयोनिर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः। तथा यतोयं गुणसंप्रवाहोबुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥
अर्थ: जो मेरे जैसे आत्मसमर्पित जीवों को मायारूपी बंधनों से मुक्त करने के लिए प्रकट होते हैं, जो स्वयं मुक्त, करुणामय और विश्रांति के धाम हैं - उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सभी प्राणियों के हृदय में अंतर्यामी रूप से विद्यमान हैं, और जिनका अनुभव केवल आत्मज्ञान से होता है - उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ। जो संसार के बंधनों में फँसे जीवों से दूर, गुणातीत और मुक्तात्माओं के हृदय में प्रकाशित होते हैं - ऐसे ज्ञानस्वरूप ईश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ। जिनकी भक्ति से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की इच्छाएँ पूर्ण होती हैं, मैं उनसे अमरता नहीं, बल्कि जन्म-मरण से मुक्ति की प्रार्थना करता हूँ। जो शरणागत भक्तों को भौतिक इच्छाओं से परे ले जाकर अपनी दिव्य लीलाओं में आनन्दित करते हैं - उन प्रभु को मैं वंदन करता हूँ। वे अविनाशी, परब्रह्म, अतीन्द्रिय, सूक्ष्म, अनंत और पूर्ण हैं - उन्हीं को मैं नमस्कार करता हूँ, जिनसे सारा सृष्टि-विस्तार उत्पन्न होता है।
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंगन स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः। नायं गुणः कर्म न सन्न चासननिषेधशेषो जयतादशेषः॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या। इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम। विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते। योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय। प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तयेकदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम। तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषंब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः। नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वाततत्राखिलामर्मयो हरिराविरासीत॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासःस्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि:। छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः॥
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम। उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छान्नारायण्खिलगुरो भगवान नम्स्ते॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्यसग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार। ग्राहाद विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रंसम्पश्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम॥
अर्थ: वह भगवान न देव हैं, न असुर, न मनुष्य, न स्त्री, न पुरुष - वे सभी भेदों से परे, निषेधातीत और सर्वशक्तिमान हैं। मैं न इस लोक की इच्छा करता हूँ, न परलोक की - बस उस परमात्मा की मुक्ति चाहता हूँ जो काल से अछूता है। वही अजन्मा, व्यापक ब्रह्म, जो सबका सृजनकर्ता, ज्ञाता और परमपद है - उसे मैं नमस्कार करता हूँ। योगीजन जिस योगेश्वर को ध्यान में देखते हैं, उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ। आप ही वह हैं जिनकी गति इंद्रियों से परे है, जो शरणागतों की रक्षा करते हैं और जिन्हें समझना अत्यंत कठिन है। जीव अपनी "मैं" भावना में आपसे अज्ञानवश अलग हो जाता है, परंतु आप ही उसके वास्तविक स्वरूप हैं। जब गजेन्द्र ने इस प्रकार स्तुति की, तब ब्रह्मादि देवता चकित रह गए और स्वयं भगवान हरि, गरुड़ पर सवार होकर, चक्रधारी रूप में प्रकट हुए। उन्होंने ग्राह को मारकर गजेन्द्र को उसके जबड़ों से छुड़ाया और संकट से मुक्त किया।
बहुत पुरानी बात है, एक बार लोक में एक महान राजा था जिसका नाम था इंद्रद्युम्न। वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे और पूरी श्रद्धा से उनकी पूजा करते थे। परंतु एक दिन वे ऋषि अगस्त्य से मिलने गए, लेकिन व्यस्तता और अभिमान के कारण ऋषि का उचित सम्मान नहीं कर पाए। इस अपमान से क्रोधित होकर ऋषि अगस्त्य ने उन्हें श्राप दिया कि वे अगली जन्म में हाथी के रूप में पुनर्जन्म लेंगे। यह श्राप उनकी भक्ति की परीक्षा थी, जो उनके अतीत कर्मों और उनके विश्वास की परीक्षा बनकर आया।
इंद्रद्युम्न ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे उन्हें इस श्राप से मुक्ति दें। भगवान विष्णु ने कहा कि यदि वे पूर्ण समर्पण और सच्ची भक्ति से इस जन्म में जीवन बिताएंगे, तो निश्चित ही मोक्ष प्राप्त होगा। ऐसा ही हुआ, वे पुनर्जन्म लेकर हाथी के रूप में धरती पर आए और उनका नाम पड़ा गजेंद्र।
गजेंद्र एक विशाल और शक्तिशाली हाथी था, जो वरुणदेव द्वारा बनाए गए स्वर्गीय उद्यान 'ऋतुमत' में अपने झुंड के साथ रहता था। उसका जीवन सौंदर्य, शांति और भक्ति से भरा था। वह प्रतिदिन भगवान विष्णु की आराधना करता, कमल के फूल तोड़कर उन्हें विष्णु को अर्पित करता। वह जानता था कि उसकी मुक्ति तभी संभव होगी जब उसकी भक्ति शुद्ध और अटूट रहे।
एक दिन, जब गजेंद्र जैसे हमेशा की तरह पूजा के लिए झील के किनारे गया, अचानक पानी से एक भयंकर मगरमच्छ निकला और उसने गजेंद्र के पैर पर जोर से पकड़ लिया। गजेंद्र ने अपने संपूर्ण बल से संघर्ष किया। वह मगरमच्छ से अपने आप को छुड़ा नहीं पाया, और मगरमच्छ की पकड़ मजबूत होती गई। झुंड के अन्य हाथी और जीव-जन्तु भी उसकी मदद को आए, परंतु मगरमच्छ के चंगुल से छुटकारा नहीं मिला।
धीरे-धीरे गजेंद्र का शरीर थकने लगा और उसके सभी प्रयास विफल हो गए। मृत्यु की छाया उसके सामने थी। उस क्षण वह अकेला, विकट पीड़ा और भय में था। उसने देखा कि उसके सारे साथी पीछे हट गए हैं और उसका सामना मौत से अकेले कर दिया गया है। परन्तु गजेंद्र की आत्मा में विश्वास और भक्ति की लौ बुझी नहीं।
अपने अंतिम साहस और श्रद्धा के साथ गजेंद्र ने अपने सूंड में एक कमल का फूल उठाया और भगवान विष्णु की ओर अपनी पूरी श्रद्धा और भक्ति के साथ पुकार की। उसकी आवाज़ में केवल विनम्रता और आत्मसमर्पण था - “हे भगवान! आप ही मेरा अंतिम सहारा हैं, कृपया मेरी रक्षा करें।” भगवान विष्णु ने अपनी दिव्य दृष्टि से इस पुकार को सुना और तुरन्त अपने सुदर्शन चक्र सहित गजेंद्र की सहायता को प्रकट हुए। उन्होंने अपनी दिव्य शक्ति से मगरमच्छ का वध किया और गजेंद्र को मृत्यु के गर्त से बाहर निकाला।
फिर भगवान ने गजेंद्र को बताया कि वे उनके पूर्व जन्म के राजा इंद्रद्युम्न हैं, जो अपने अनादर के कारण इस जन्म में हाथी के रूप में आए थे। परन्तु उनकी सच्ची भक्ति और समर्पण ने उन्हें मुक्ति दिलाई। गजेंद्र ने भगवान के चरणों में शीश झुकाया और अपने इस जन्म का उद्धार पाकर स्वर्ग से भी श्रेष्ठ वैकुंठ धाम की ओर प्रस्थान किया।
गजेंद्र स्तुति कोई साधारण प्रार्थना नहीं है। यह उस क्षण की वाणी है जब प्राणी अपनी सीमाओं को समझकर, निरंतर प्रयास के बाद, ईश्वर के शरणागत हो जाता है। यह स्तुति दिखाती है कि जब संसार में कोई सहायता न बचे, तब भी भक्ति और विश्वास से ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है। यह विष्णु सहस्रनाम से भी अधिक प्रभावी स्तुतियों में मानी जाती है।
विशेष रूप से गुरुवार, एकादशी, या सत्यनारायण कथा के अवसर पर इसका पाठ करना अत्यंत शुभ माना गया है।
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र हमें यह सिखाता है कि ईश्वर तक पहुँचने के लिए साधन या शक्ति नहीं, बल्कि अंतर्मन की सच्ची पुकार और समर्पण आवश्यक है। यह एक हाथी की आत्मा की वह प्रार्थना है, जो ईश्वर के हृदय तक पहुँची और उसे अपने धाम ले गई। यह स्तोत्र केवल पाठ नहीं, एक आध्यात्मिक यात्रा है-दुख से शांति की ओर, भय से मोक्ष की ओर।
वास्तव में, जब सब कुछ छिन जाए, तब भी भगवान को पुकारने की शक्ति बची रहती है - और वही है गजेंद्र मोक्ष।
अनुभव: 27
इनसे पूछें: विवाह, करियर, संपत्ति
इनके क्लाइंट: छ.ग., म.प्र., दि., ओडि
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