By अपर्णा पाटनी
समर्पण, भक्ति और मोक्ष की जीवंत कथा जो भागवत पुराण से प्रेरित है

गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र केवल एक धार्मिक पाठ नहीं, बल्कि ईश्वर में पूर्ण समर्पण, अटूट आस्था और अंतर्मन की पुकार का जीवंत प्रतीक है। यह स्तोत्र भागवत पुराण के आठवें स्कंध में वर्णित गजेंद्र मोक्ष की दिव्य कथा से उत्पन्न हुआ है, जिसे शुकदेव ऋषि ने राजा परीक्षित को सुनाया था। इसमें केवल एक हाथी और मगरमच्छ का संघर्ष नहीं, बल्कि मनुष्य के अंतर्मन में चल रही आशा और भय, संकल्प और समर्पण की गूंज समाहित है।
श्री शुक उवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम॥
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितंक्कचिद्विभातं क्क च तत्तिरोहितम।
अविद्ददृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोवतु मां परात्परः॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशु
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु।
तमस्तदा सीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु॥
अर्थ
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि गजेंद्र ने स्थिर बुद्धि से अपने मन को हृदय में एकाग्र कर लिया और पूर्वजन्म में सीखी हुई परम जप्य वस्तु, भगवान की स्तुति का मंत्र, जपने लगा। उसने कहा: “ॐ नमो भगवते” उस परम पुरुष को नमस्कार है जो चिदात्मा, समस्त विश्व के कारण, आदिबीजस्वरूप पुरुष और परमेश्वर हैं, हम उनका ध्यान करते हैं। जिसमें जगत स्थित है, जिससे उत्पन्न है, जिसके द्वारा बना है, जो स्वयं सब कुछ है और जो इस सब से परे भी है, उस स्वयम्भू परमात्मा की मैं शरण लेता हूँ। जो अपने आत्मस्वरूप में इस जगत को अपनी माया से कभी प्रकाशित और कभी आच्छन्न करते हैं, जिसे अविद्या से ढका जीव और साक्षीरूप ज्ञानी दोनों देखते हैं, वे परात्पर आत्ममूल परमात्मा मेरी रक्षा करें। जब काल के प्रभाव से सब लोकों के रचयिता और पालक पंचत्व को प्राप्त हो जाते हैं तब गहन अंधकार रूप तामसी अवस्था रह जाती है, उसके पार जो विभु परमात्मा प्रकाशमान रहते हैं वही वास्तविक परम सत्ता हैं। जिनके चरणों को देव और ऋषिगण भी नहीं जान पाते, तो सामान्य जीव की क्या बात, जैसे नट की विचित्र लीला की गति को समझ पाना कठिन है, वैसे ही जिनकी लीलाओं की गति अलंघ्य है, वे परमात्मा हमारी रक्षा करें।
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
अविमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतत्मभूता सुहृदः स मे गतिः॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा।
तथापि लोकाप्ययाम्भवाय यः
स्वमायया तान्युलाकमृच्छति॥
तस्मै नमः परेशाय ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता।
नमः केवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे।
पुरुषायात्ममूलय मूलप्रकृतये नमः॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासय ते नमः॥
नमो नमस्ते खिल कारणाय
निष्कारणायद्भुत कारणाय।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोऽपवर्गाय परायणाय॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मान्साय।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि॥
अर्थ
जिनके पावन चरणों के दर्शन की इच्छा से मुनिजन सब आसक्ति छोड़कर वन में निष्कलंक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, सब प्राणियों में परमात्मा को देखते हुए उन्हें ही अपना परम मित्र मानते हैं, वे प्रभु मेरी परम गति हों। जिनका न जन्म, न कर्म, न नाम, न रूप, न गुण-दोष, फिर भी जो जगत के व्यवहार के लिए अपनी माया से इन्हें प्रकट करते हैं, ऐसे परमेश्वर को नमस्कार है। जो ब्रह्मस्वरूप, अनंत शक्तियों से युक्त, निराकार होते हुए भी अनेक रूपों से प्रकट होते हैं और जिनके कर्म आश्चर्यजनक हैं, उन्हें प्रणाम है। जो आत्मा के प्रदीप, साक्षी रूप परमात्मा हैं और वाणी, मन, चित्त से परे हैं, उन्हें नमस्कार है। जो सत्त्वगुण से उपलब्ध, निष्काम कर्म से जाने जाते हैं, केवल्य (मोक्ष) के नाथ और निर्वाण सुख के अनुभवस्वरूप हैं, उन्हें बारम्बार वंदन है। जो ज्ञानस्वरूप, शान्त, निर्गुण, समदर्शी, क्षेत्रज्ञ, सर्वाध्यक्ष और मूल प्रकृति के भी मूल हैं, वे परमात्मा वंदनीय हैं। जो सभी इंद्रियों के विषयों के द्रष्टा, सब अनुभवों के हेतु, असत् की छाया में प्रतीत होते हुए भी सद् का प्रकाश करने वाले हैं, उन्हें नमस्कार है। जो सबके कारणों के भी कारण होते हुए भी स्वयं निष्कारण हैं, माया-महासागर से परे, अपवर्ग (मोक्ष) के एकमात्र आश्रय हैं, उन्हें बारम्बार प्रणाम है।
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैः
दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति।
किं त्वाशिषो रत्यपि देहमव्ययं
करोतु मे दभ्रदयो विमोक्षणम्॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थं
वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त्य आनंद समुद्रमग्नाः॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशम्
अव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरं
अनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः॥
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत स्वरोचिषः।
तथा यतोयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः॥
अर्थ
जो मेरे जैसे शरणागत, पशु-पाश से बंधे जीवों को मुक्त करने के लिए प्रकट होते हैं, जो स्वयं मुक्त, अत्यंत कृपालु और शांति के धाम हैं, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। जो आत्मा, पुत्र, गृह, धन और परिवार में आसक्त जीवों के लिए अत्यंत दुर्लभ हैं, गुण-संग से रहित हैं, और मुक्तात्माओं के हृदय में ज्ञानरूप से प्रकाशित होते हैं, ऐसे ज्ञानस्वरूप ईश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनकी भक्ति से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की इच्छाएँ पूर्ण होती हैं, मैं उनसे अविनाशी शरीर या भौतिक सुख नहीं, बल्कि जन्म-मरण से विमुक्ति की प्रार्थना करता हूँ। जिनकी लीलाएँ अद्भुत और मंगलमय हैं, जिन्हें भगवत्परायण भक्त एकाग्र होकर गाते हैं और आनंद-सागर में डूब जाते हैं, उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ। जो अक्षर ब्रह्म, परमेश्वर, अव्यक्त, केवल आध्यात्मिक योग से जाने जा सकते हैं, इंद्रियातीत, सूक्ष्म, अतिदूर प्रतीत होकर भी सर्वत्र वर्तमान, अनादि, अनंत और परिपूर्ण हैं, उनका मैं स्तवन करता हूँ। जिनसे ब्रह्मा आदि देवता, वेद, लोक और समस्त चराचर प्रकट होते हैं और नाम-रूप के हल्के भेदों से दिखाई देते हैं, वे ही वास्तविक मूल हैं। जैसे अग्नि से अग्निशिखाएँ निकलकर पुनः उसमें समा जाती हैं, वैसे ही जिनसे गुणों का प्रवाह, बुद्धि, मन, इंद्रियाँ और शरीर की सारी रचना उत्पन्न होकर फिर उन्हीं में लय पाती है, उन परमात्मा की मैं शरण लेता हूँ।
स वै न देवो न सुरो न मर्त्यो
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः।
नायं गुणो नापि च धर्मनैव
नासद् न चासत् केvalोऽव्यलीकः॥
जिजीविषे नाहमिहामुया किं
अन्तर्बहिश्चावृतये भयोन्या।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवः
तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम॥
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं
विश्ववेधसं।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म
प्रणतोस्मि परं पदम्॥
योगरन्धित कर्माणो
हृदि योगविभाविते।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति
योगेशं तं नतोऽस्म्यहम॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग
शक्तित्रयाखिलधीगुणाय।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्त्यै
एकेन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने॥
नायं वेद स्वमात्मानं
यच्छक्त्याहंधिया हतम।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं
भगवन्तमितोऽस्म्यहम॥
अर्थ
वह भगवान न देव हैं, न असुर, न मनुष्य, न स्त्री, न पुरुष, वे सभी द्वैतभेदों से परे, सर्वात्मा, अव्यक्त और निषेधातीत हैं। मैं न इस लोक में भोग चाहता हूँ न परलोक में, न भय से घिरा रहना चाहता हूँ, मैं केवल उस परमात्मा का लोक, उनका आवरण हटाकर मोक्ष चाहता हूँ, जिस पर काल का कोई प्रभाव नहीं। वही अजन्मा, विश्व-सृष्टा, विश्व के भीतर और विश्व से परे, विश्वात्मा, परब्रह्म हैं, मैं उस परम पद को प्रणाम करता हूँ। योगीजन जिन योगेश्वर को अपने हृदय में योग के द्वारा देखते हैं, जिन्हें कर्म का बन्धन नहीं, मैं उन योगेश्वर को प्रणाम करता हूँ। मैं आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जिनकी वेगशील, अपरिमित शक्ति तीनों गुणों से परे, सब बुद्धियों के गुणों से उच्च है, जो शरणागत की रक्षा करते हैं, जिनकी गति इंद्रियों से परे है। जीव अपनी “मैं” भावना और आपकी शक्ति से आच्छादित होकर अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को नहीं जान पाता, परंतु मैं उस दुर्गम महिमा वाले भगवंत की शरण में हूँ।
गजेंद्र मोक्ष: भगवान की प्रत्यक्ष कृपा
जब गजेंद्र ने इस प्रकार हृदय से स्तुति की तो ब्रह्मादि देवता चकित रह गए और स्वयं भगवान हरि गरुड़ पर सवार होकर, चक्रधारी रूप में प्रकट हुए। उन्होंने ग्राह पर सुदर्शन चक्र चलाकर उसके मुख को चीर दिया और गजेंद्र को उसके जबड़ों से मुक्त किया। इस प्रकार गजेंद्र को न केवल प्राणरक्षा मिली, बल्कि मोक्ष भी प्राप्त हुआ।
यह कथा दिखाती है कि अंततः केवल भगवान की शरण और सच्ची पुकार ही वास्तविक रक्षा और मोक्ष का मार्ग बनती है।
गजेंद्र स्तुति साधारण प्रार्थना नहीं, वह उस क्षण की वाणी है जब जीव अपनी समस्त सामर्थ्य का उपयोग कर लेने के बाद यह स्वीकार कर लेता है कि अब केवल ईश्वर ही एकमात्र आश्रय हैं। यह स्तुति सच्चे आत्मसमर्पण, विष्णुभक्ति और अद्वैत ज्ञान का अत्यंत मार्मिक समन्वय है। परंपरा में इसे अत्यंत प्रभावी स्तुतियों में गिना गया है, जो संकट, पाप और भय तीनों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र केवल हाथी और मगरमच्छ की कथा नहीं, यह हर उस साधक की आंतरिक यात्रा का प्रतीक है जो संघर्ष, भय और निराशा के बीच अंततः ईश्वर को पुकारना सीख जाता है। जब सब सहारे टूट जाएँ तब भी ईश्वर का नाम लेने की शक्ति शेष रहती है, और वही सच्चा मोक्ष का द्वार बनती है। वास्तव में गजेंद्र मोक्ष हमें सिखाता है कि आत्मसमर्पण और भक्ति ही वह सेतु हैं जिनसे हम मृत्यु के भय से निकलकर परम शांति की ओर बढ़ सकते हैं।
1.गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र किस ग्रंथ में और किस प्रसंग में वर्णित है?
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र श्रीमद्भागवत महापुराण के आठवें स्कंध में आता है, जहाँ शुकदेव जी राजा परीक्षित को गजेंद्र और मगरमच्छ की कथा सुनाते हैं।
2.गजेंद्र कौन थे और उन्हें हाथी का जन्म क्यों मिला?
गजेंद्र पूर्वजन्म में राजा इंद्रद्युम्न थे, जिन्होंने ऋषि अगस्त्य का उचित सम्मान न करने पर श्रापवश हाथी के रूप में जन्म लिया, ताकि उनकी भक्ति की परीक्षा हो और अंत में मोक्ष की प्राप्ति हो।
4.क्या गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र केवल संकट के समय ही पढ़ना चाहिए?
संकट में इसका पाठ अत्यंत सहायक है, परंतु नियमित पाठ इसे एक शक्तिशाली साधना बना देता है जो मन को स्थिर, निडर और भक्तिमय बनाती है।
5.गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र से पितृ दोष और ग्रह दोष में कैसे लाभ मिलता है?
श्राद्ध पक्ष, अमावस्या या विशेष तिथियों पर श्रद्धा से पाठ करने पर यह स्तोत्र पितृ दोष और कुछ प्रकार के दैविक कष्टों को शांत करने में सहायक माना गया है, क्योंकि यह पूर्ण समर्पण और विष्णुभक्ति का स्तवन है।
6.क्या स्तोत्र का अर्थ समझना आवश्यक है या केवल पाठ पर्याप्त है?
अर्थ जानना अत्यंत लाभकारी है, क्योंकि भाव सहित जप से हृदय और बुद्धि दोनों शुद्ध होते हैं, हालांकि श्रद्धापूर्वक उच्चारण मात्र से भी दिव्य प्रभाव मिलता है।
7.क्या गृहस्थ जीवन में व्यस्त व्यक्ति भी गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र को अपनी दिनचर्या में शामिल कर सकता है?
हाँ, प्रतिदिन कुछ समय निकालकर संक्षेप में ही सही, नियमित पाठ करने से गृहस्थ भी मानसिक शांति, साहस और ईश्वर की गहन निकटता का अनुभव कर सकता है।
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