By अपर्णा पाटनी
जानिए क्यों ब्रह्मा की पूजा दुर्लभ है लेकिन अत्यंत पावन मानी जाती है
भारतीय परंपरा में ब्रह्मा को सृष्टि का शिल्पी माना गया है, किंतु उनकी पूजा अन्य देवताओं की तुलना में कहीं अधिक दुर्लभ है। जहां विष्णु-शिव के मंदिर अनगिनत मिलते हैं, लक्ष्मी-गणेश के नाम पर घर-घर में जाप सुनाई देता है, वहीं ब्रह्मा के नाम से गिने-चुने ही मंदिर हैं। यह विरोधाभास अपने आप में आकर्षक है: जहां सृष्टि के आरंभकर्ता को प्रतिदिन स्मरण तक नहीं किया जाता, वहीं जब भी ब्रह्मा को स्मरण किया जाता है, वह क्षण साधारण नहीं, अत्यंत गूढ़ और पावन माना जाता है।
ब्रह्मा का चरित्र सृजन में रमता है, परंतु वह अकेला भी है। वही जीवन को आकार देते हैं - पंचतत्वों, जीव-जंतुओं, समय, क्रम - सब उन्हीं के संकल्प से प्रारंभ होते हैं। एक बार सृष्टि निर्माण का कार्य पूर्ण होने पर उनकी भूमिका पूरी मानी जाती है, उसके बाद संरक्षण का दायित्व विष्णु और परिवर्तन का जिम्मा शिव के पास चला जाता है। इसीलिए, ब्रह्मा का स्मरण उस कालखंड की तरह है जब कोई अद्वितीय निर्माण कर अपने कार्य से पीछे हट जाता है। शायद यही कारण है कि उनकी उपासना सीमित है - क्योंकि सृजन के बाद ध्यान उसके पालन और रूपांतरण की ओर जाता है।
लोककथा अनुसार, ब्रह्मा की सीमित पूजा का कारण है महर्षि भृगु का श्राप। कहते हैं कि भृगु ऋषि जब देवताओं के पास आशीर्वाद लेने पहुँचे तो ब्रह्मा ने उन्हें अनदेखा कर दिया। इस अपमान से क्रोधित होकर भृगु ने शाप दे दिया कि ब्रह्मा की पृथ्वी पर कभी भी सक्रिय रूप से पूजा नहीं होगी। यह प्रसंग संवाद और आदर की महत्ता को दर्शाता है - केवल सृजन पर्याप्त नहीं, सृजन करने वाले में करुणा और सहानुभूति भी होना आवश्यक है।
ब्रह्मा और सरस्वती से जुड़ी अनेक कथाएँ भारतीय परंपरा में प्रचलित हैं। एक कथा अनुसार, ब्रह्मा ने सरस्वती को अपनी चेतना से उत्पन्न किया था, और उनकी सुंदरता पर मोहित हो गए। अन्य देवताओं ने इसे अनुचित माना, जिसके फलस्वरूप समाज में ब्रह्मा की प्रतिष्ठा धूमिल हो गई। यह कथा मात्र ईश्वरीय भूल नहीं, बल्कि सृजन और सीमाओं की मानवीय उलझनों का संकेत भी है। जिम्मेदारी और सृजनशीलता के बीच तालमेल ही संतुलन की कुंजी है।
पूरे भारत में ब्रह्मा के जिन मंदिरों का उल्लेख मिलता है, उनमें राजस्थान का पुष्कर मंदिर प्रमुख है। प्रतिवर्ष यहां मेला भरता है, लोग दूर-दूर से आकर ब्रह्मा के चरणों में नव आरंभ का आशीर्वाद मांगते हैं। पुष्कर का यह मंदिर सृजन की शक्ति का प्रतीक है - यहाँ ब्रह्मा आरंभ के देवता स्वरूप पूजे जाते हैं; उनकी पूजा नए मार्ग एवं अवसर के द्वार खोलने का संकेत मानी जाती है।
ब्रह्मा की प्रार्थना प्रतिदिन की आवश्यकता हेतु नहीं होती; यह सृजन के सम्मान का भाव है - नव विचार, स्वप्न और संभावना का स्वागत। चाहे वह लेखक की कोरी स्लेट हो, चित्रकार की पहली रेखा, या किसी मां-बाप का नवजात शिशु - हर नई शुरुआत में ब्रह्मा का अंश समाया होता है। ब्रह्मा की पूजा में अपनी रचनात्मक ऊर्जा के प्रति सम्मान प्रकट होता है, जिसकी स्मृति हमें हर आरंभ को पावन मानने की शिक्षा देती है।
भारतीय दर्शन में जीवन को सृजन, पालन और संहार के चक्र के रूप में देखा गया है। विष्णु और शिव इस चक्र का निरंतर निवर्हन करते हैं, जबकि ब्रह्मा का सृजन एक बार ही होता है - जैसे किसी जीवन में पहचान, मूल्यों और लक्ष्य की आधारशिला एक बार ही रखी जाती है। ब्रह्मा की पूजा केवल याचना नहीं, बल्कि अपनी सृजनशक्ति से आत्म-संपर्क और जीवन की पहली रेखा को नमन है।
पहलू | आधार |
---|---|
पूजा की दुर्लभता | ऋषि भृगु के श्राप के कारण |
सरस्वती प्रसंग | सामाजिक मर्यादा और संतुलन |
प्रमुख मंदिर | पुष्कर, राजस्थान |
पूजा का अर्थ | सृजन की शक्ति का सम्मान |
भारतीय दर्शन में स्थान | नवाचार, स्वाभाव्यता, विनम्रता |
हर बार जब कोई नया कदम उठे - चाहे वह स्वप्न हो, परियोजना हो, या जीवन का नया अध्याय - थोड़ी देर ठहरकर ब्रह्मा का स्मरण करना चाहिए। उनके प्रति सम्मान, हम सभी के भीतर विद्यमान सृजनकर्ता की चेतना को जागृत करता है। यह हमें सिखाता है कि हर आरंभ पवित्र है; सृजन स्वयं में एक दिव्य उपहार है। ब्रह्मा की गाथा हमें अपने आरंभों, रचनात्मक्ता और कार्य संपन्न होने के उपरांत विनम्रता की सीख देती है।
अगली बार जब जीवन में कोई नई शुरुआत सामने हो, मन से ब्रह्मा का ध्यान करिए - क्योंकि संसार भले उनकी पूजा भूल जाए, हर शुभ आरंभ में उनका अंश सदा प्रेरित करता है।
अनुभव: 15
इनसे पूछें: पारिवारिक मामले, मुहूर्त
इनके क्लाइंट: म.प्र., दि.
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