By पं. सुव्रत शर्मा
समुद्र मंथन की कथा में अग्निदेव की उत्पत्ति और उनके दार्शनिक महत्व की विवेचना
एक समय की बात है जब देवता और असुर दोनों अमरत्व प्राप्त करना चाहते थे। देवताओं ने श्राप के कारण अपनी शक्ति खो दी थी, जबकि असुरों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया था। भगवान विष्णु ने समाधान बताया: क्षीर सागर (दूध का सागर) का मंथन करके अमृत प्राप्त करना। दोनों पक्षों ने अस्थायी संघ बनाया और मंथन की तैयारी शुरू की।
तत्व | उपयोग | विशेषता |
---|---|---|
मंदराचल पर्वत | मथनी (चलनी) | विश्व का सबसे विशाल पर्वत |
वासुकी नाग | रस्सी | 1000 फनों वाला दिव्य सर्प |
श्रीविष्णु | कच्छप अवतार (कछुआ) | पर्वत को डूबने से बचाया |
मंथन जारी रहा तो समुद्र से हलाहल विष निकला, जिसने पूरे ब्रह्मांड को खतरे में डाल दिया। भगवान शिव ने विष पीकर सृष्टि की रक्षा की, पर अग्नि ने उनके शरीर की उष्णता को संतुलित रखा। विष के प्रभाव से शिव का कंठ नीला पड़ गया, इसलिए उन्हें नीलकंठ कहा गया।
अंत में धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। देवता-असुरों में अमृत के लिए संघर्ष हुआ, जिसमें विष्णु ने मोहिनी रूप धरकर देवताओं की सहायता की। इस पूरी प्रक्रिया में अग्नि देव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई:
समुद्र मंथन मानव जीवन का प्रतीक है:
"अग्नि वह दिव्य ज्वाला है जो अंधकार को जलाकर ज्ञान का मार्ग प्रकाशित करती है।"
यह कथा हमें सिखाती है कि संघर्षों से ही मूल्यवान वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। अग्नि देव की उत्पत्ति इस बात का प्रतीक है कि प्रत्येक कठिन प्रक्रिया से नई ऊर्जा और संभावनाएँ जन्म लेती हैं।
अनुभव: 27
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