By पं. अभिषेक शर्मा
जानिए कैसे बृहस्पति ने धर्म, नीति और आत्मबल से देवताओं को विजय दिलाई और पुष्य नक्षत्र को अमृत नक्षत्र बनाया
भारतीय वेदों और पुराणों में बृहस्पति को देवताओं का गुरु, ज्ञान का सागर और धर्म का संरक्षक कहा गया है। पुष्य नक्षत्र के अधिष्ठाता बृहस्पति न केवल ज्योतिषीय दृष्टि से, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शक माने जाते हैं। उनकी कथाएँ आज भी हर पाठक को प्रेरणा, नीति और धर्म के मार्ग पर चलने की सीख देती हैं।
बृहस्पति का उल्लेख ऋग्वेद, अथर्ववेद और पुराणों में बार-बार मिलता है। उन्हें ‘देवगुरु’ कहा गया, क्योंकि वे देवताओं को न केवल मंत्र और यज्ञ की विधि सिखाते थे, बल्कि जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी सही दिशा दिखाते थे।
पुराने समय की बात है। स्वर्गलोक में देवता और असुरों के बीच लगातार युद्ध छिड़ा रहता था। असुरों के गुरु शुक्राचार्य ने गहन तपस्या से ‘मृत संजीवनी’ विद्या प्राप्त कर ली थी। इस विद्या से वे मृत असुरों को फिर से जीवित कर देते थे। हर युद्ध में जब भी कोई असुर मारा जाता, शुक्राचार्य मंत्र पढ़ते और असुर फिर से जीवित हो जाता। इससे देवता निराश और भयभीत हो गए। उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगा और स्वर्ग का संतुलन बिगड़ने लगा।
देवताओं ने इंद्र के नेतृत्व में सभा बुलाई। सभी देवता - अग्नि, वरुण, वायु, सूर्य - चिंतित थे। “हम हर बार जीत के करीब पहुंचते हैं, लेकिन शुक्राचार्य अपनी विद्या से असुरों को फिर से जीवित कर देते हैं। कब तक यह चलेगा?” इंद्र ने कहा। तब सभी की दृष्टि अपने गुरु, बृहस्पति पर गई। बृहस्पति शांत, गंभीर और तेजस्वी मुद्रा में बैठे थे। उनके चेहरे पर चिंता नहीं, बल्कि गहरी समझ और धैर्य झलक रहा था।
देवताओं ने बृहस्पति से विनती की, “हे गुरु, हमें मार्ग दिखाइए। हमारी शक्ति चुक रही है और असुर हर बार लौट आते हैं।” बृहस्पति ने मुस्कराते हुए कहा,
“शक्ति केवल अस्त्र-शस्त्र या चमत्कार में नहीं, बल्कि सत्य, धर्म और आत्मबल में है। जब तक तुम अपने भीतर की शक्ति को नहीं पहचानोगे, तब तक विजय असंभव है।”
उन्होंने देवताओं को बताया कि असली विजय केवल बाहरी साधनों से नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि, नीति और धर् म के पालन से मिलती है। बृहस्पति ने उन्हें मंत्रों का सही उच्चारण, यज्ञ की पवित्रता और नीति-धर्म का पालन सिखाया। उन्होंने कहा कि जब तक देवता अपने कर्मों में शुद्धता, विचारों में पवित्रता और मन में विश्वास नहीं लाएंगे, तब तक वे असुरों पर स्थायी विजय नहीं पा सकते।
बृहस्पति ने देवताओं को विशेष यज्ञ करवाया। उन्होंने हर देवता को उसका स्वधर्म याद दिलाया-अग्नि को तप, वरुण को संयम, वायु को गति, सूर्य को प्रकाश। सभी देवताओं ने अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, बृहस्पति के बताए मंत्रों और विधियों से यज्ञ किया। यज्ञ के दौरान बृहस्पति ने एक मंत्र बोला-
“ओम् धर्मो रक्षति रक्षितः।
धर्म की रक्षा करने वाला, स्वयं धर्म की रक्षा करता है।”
यज्ञ की अग्नि से निकली ऊर्जा ने देवताओं के भीतर आत्मविश्वास और शक्ति का संचार किया। वे न केवल बाहरी रूप से, बल्कि भीतर से भी मजबूत हो गए।
अब जब युद्ध हुआ, तो देवताओं ने न केवल अस्त्र-शस्त्र, बल्कि नीति, संयम और धर्म का सहारा लिया। असुरों के बार-बार जीवित होने के बावजूद, देवताओं की आंतरिक शक्ति, धैर्य और विश्वास ने उन्हें जीत दिलाई। शुक्राचार्य की विद्या अब उतनी प्रभावशाली नहीं रही, क्योंकि देवताओं के कर्म शुद्ध और पवित्र हो गए थे। बृहस्पति ने देवताओं को सिखाया कि सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य को बाहरी साधनों से अधिक, आंतरिक शक्ति और धर्म का महत्व समझाए। इसी कारण बृहस्पति को ‘देवगुरु’ कहा गया और पुष्य नक्षत्र को ‘अमृत नक्षत्र’ की उपाधि मिली।
पुष्य नक्षत्र के अधिष्ठाता बृहस्पति हैं, इसलिए इस नक्षत्र में जन्मे लोग स्वाभाविक रूप से ज्ञान, नीति, धर्म और आत्मशुद्धि की ओर आकर्षित होते हैं। इनका जीवन दूसरों के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन का स्रोत बनता है।
बृहस्पति की यह कथा न केवल वेदों की गहराई को दर्शाती है, बल्कि आज के जीवन में भी उतनी ही प्रासंगिक है। पुष्य नक्षत्र के पाठकों के लिए यह कहानी एक प्रेरणा है-कि जीवन में चाहे कितनी भी चुनौतियाँ आएं, अगर आपके पास सही मार्गदर्शन, आत्मबल और धर्म का साथ है, तो हर कठिनाई को पार किया जा सकता है।
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