By पं. अभिषेक शर्मा
रामसेना लंका प्रस्थान, समुद्र के आगे राम का संकल्प और भक्ति, विजय का मार्ग
रामायण के असंख्य प्रसंगों में, समुद्रदेव और श्रीराम का संवाद विशेष स्थान रखता है। लंका यात्रा के निर्णायक क्षण से ठीक पहले घटित यह संवाद, जहां श्रीराम ने समुद्र के तट पर बैठकर मार्ग माँगा, जीवन, धर्म, धैर्य और बेचैनी-इन सबका अद्भुत योग है। इसके भव्य अर्थ केवल पौराणिक कथा नहीं बल्कि नेतृत्व, विवेक, कर्म और विनय के सबसे प्राचीन पाठ हैं।
राम, लक्ष्मण, हनुमान और वानर सेना, विभीषण के मार्गदर्शन में सदियों पुराना सागर तट (तमिलनाडु के रामेश्वरम् क्षेत्र में स्थित माने जाते हैं) पर पहुँचे। यह समय विजयादशमी (दशहरा) के लगभग का था, जब लंका पर चढ़ाई हेतु पूरे दल ने समर्पण भाव से श्रीराम का अनुसरण किया। समुद्र रामायण में हमेशा ‘मायामय’, ‘प्रकृति के अटल नियमों का प्रतीक’ नायक रहा है।
दिन | कार्य |
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पहला दिन | राम समुद्र के किनारे ध्यानस्थ; समाधि |
दूसरा दिन | प्रार्थना, संकल्प; समुद्रदेव से निवेदन |
तीसरा दिन | व्रत, श्रमिकों की प्रतीक्षा, समुद्र स्थिर |
चौथा दिन | श्रीराम का रोष, शक्ति का प्रकट संकल्प |
तीन दिन और रात तक श्रीराम ने समुद्र के सामने बैठकर अमृत वाणी, मार्मिक प्रार्थना और सत्य, धर्म की बात ही की। उनकी अनुमति के बिना पार जाना श्रीराम को उचित नहीं लगा। यहां नायकत्व में ‘अनुशासन और भक्ति’ का उन्नत आदर्श है।
तीन दिनों की भक्ति, आर्त निवेदन और आंखों में आँसुओं के बावजूद समुद्रदेव ने कोई उत्तरा नहीं दिया। यह मौन असंवेदनाशीलता नहीं था बल्कि तप, धैर्य और सिद्धि की कसौटी थी। पुराणों के अनुसार, समुद्र चाहता था कि श्रीराम अपने भीतर की दुर्बलता त्यागें, “शांत, लेकिन दृढ़” बनें। प्रकृति का नियम यही है-मांग हर बार पूरी नहीं होती; ब्रह्मांड भी परीक्षा लेता है।
घटना | भावार्थ |
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समुद्र का मौन रहना | परीक्षा, आत्म-नियंत्रण, धैर्य |
श्रीराम का बार-बार प्रार्थना | धर्म, विनम्रता, कर्मशील प्रयास |
चौथे दिन, श्रीराम के भीतर क्षोभ उपजा-‘मौन में क्रांति।’ उन्होंने दृढ़ता से कहा-"यदि समुद्र प्रेम, भक्ति, विनय से नहीं मानता, तो शक्ति दिखानी ही होगी।" श्रीराम ने धनुष उठाया, ब्रह्मास्त्र का संकल्प लिया। यह शौर्य, संकल्प और कर्मयोग का क्षण था, जहां धर्म की रक्षा के लिए तेज दिखाना ऊर्जा का संतुलन था।
समुद्रदेव तत्काल प्रकट हुए। वे बोले-"हां, मैं नियमों से बंधा हूं, मेरा स्वरूप पार नहीं हो सकता। किंतु आपकी साधना सफल है। मेरा आशीर्वाद है, आप अपनी सेना के साथ नल-नील की विशेष कला से पुल (रामसेतु) बनाएं-वह आपका पराक्रम, मेरी कृपा और वानरों की एकता का प्रतीक होगा।"
रामायण के अनुसार, समुद्र की स्वीकृति के बाद नल और नील नामक वानर शिल्पकारों ने पत्थरों और लकड़ियों का सेतु बनाना शुरू किया-अद्भुत यह था कि श्रीराम का नाम लिखने पर पत्थर तैरने लगे। हनुमान, अंगद, जामवंत समेत पूरी सेना ने मिलकर लंका तक यह रामसेतु (Adam’s Bridge) बना डाला।
पात्र | भूमिका | प्रतीक |
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समुद्रदेव | प्रकृति के नियम, आशीर्वाद | अनुशासन और संतुलन |
श्रीराम | भक्ति, शक्ति, धैर्य | मर्यादा पुरुषोत्तम |
नल-नील | निर्माण, टीमवर्क, विज्ञान | प्राचीन अभियंता |
बजरंग बली | अद्भुत ऊर्जा, सेवा | 'राम कार्य' का संकल्प |
प्रश्न 1: समुद्र के मौन का क्या गूढ़ अर्थ है?
उत्तरा: यह संघर्ष से धैर्य, विनम्रता और सच्ची आत्मशक्ति के जन्म की परीक्षा है।
प्रश्न 2: श्रीराम ने ब्रह्मास्त्र सचमुच छोड़ा या केवल संकल्प किया?
उत्तरा: शास्त्रों में भिन्न मत हैं-कुछ में संकल्प भर, कुछ में एक जल-मार्ग पर छोड़ा। उसका सार यही था कि शक्ति की उपस्थिति मात्र से प्रकृति/समाज संतुलित हो गया।
प्रश्न 3: रामसेतु विज्ञान या आस्था का चमत्कार है?
उत्तरा: पुरातत्व व विज्ञान ने कुछ प्रमाण दिए हैं, परंपरा और विश्वास के लिए वह आस्था, सेवा, सहयोग का चिरंतन स्मारक है।
प्रश्न 4: इस प्रसंग की आज के जीवन में कितनी प्रासंगिकता है?
उत्तरा: परिवार, समाज, राजनीति, प्रबंधन, किसी भी विधा में-विनम्रता, धैर्य और आवश्यक दृढ़ता, सफलता के आधार स्तंभ हैं।
प्रश्न 5: समुद्र द्वारा सुझाए गए पुल के शिल्पकार कौन थे?
उत्तरा: वानर अभियंता नल और नील, जिनकी वास्तु-कला से पत्थर तैरने लगे।
राम और समुद्रदेव की यह उत्तम कथा बताती है कि जीवन में हर बाधा-मूल्य, संवाद, धैर्य और आवश्यक शक्ति के संयोग से दूर हो सकती है। मर्यादा, तर्क, साधना और निर्णायक कर्म से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है-रामायण का यही कालजयी संदेश है।
अनुभव: 19
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