By पं. अमिताभ शर्मा
वैदिक धर्म में अनुष्ठान और आत्मसाक्षात्कार का संबंध
“न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः।”
(न तो कर्मों से, न संतान से और न धन से, केवल त्याग से अमरत्व की प्राप्ति होती है - मुण्डक उपनिषद् 3.2.3)
वैदिक धर्म को प्रायः एक ऐसे धर्म के रूप में देखा जाता है जहाँ अनुष्ठान, पूजा, यज्ञ, आरती और मंदिर परंपराएँ मुख्य स्थान रखती हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन का हर पड़ाव किसी न किसी संस्कार और विधि से जुड़ा होता है। किंतु उपनिषद और गीता बार-बार इस बात को स्पष्ट करते हैं कि धर्म का गूढ़ सार केवल बाहरी क्रियाओं में नहीं बल्कि आत्म-साक्षात्कार में निहित है।
यही प्रश्न उठता है - यदि ये सभी पूजा-पाठ और अनुष्ठान न हों, तो क्या वैदिक धर्म वही रहेगा? क्या आध्यात्मिकता केवल अंतर्मन की यात्रा है, या फिर बाहरी रीति-रिवाज भी आवश्यक हैं? आइए इस गहन विषय की पड़ताल करें।
वैदिक अनुष्ठान केवल प्रतीकात्मक कर्म नहीं बल्कि आध्यात्मिक अनुशासन और सामाजिक समरसता का माध्यम हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद में वर्णित है कि यज्ञ और कर्मकांड मानव जीवन को ऋत यानी ब्रह्मांडीय नियम से जोड़ते हैं।
कुछ प्रमुख उदाहरण:
ये अनुष्ठान व्यक्ति की आत्मिक प्रगति के साथ-साथ सामूहिक पहचान और संस्कृति को भी सुदृढ़ करते हैं।
वैदिक धर्म में यह भी स्वीकार किया गया है कि परम सत्य की प्राप्ति कर्मकांड से परे है।
इतिहास में आदि शंकराचार्य, रामन महर्षि और विवेकानंद जैसे संतों ने बाहरी विधियों से अधिक ज्ञान और भक्ति को महत्व दिया।
व्यक्तिगत साधना से आगे, अनुष्ठान समाज और संस्कृति को एक सूत्र में बांधते हैं।
यदि ये परंपराएँ मिट जाएँ, तो वैदिक धर्म दार्शनिक विचार तक सीमित रह जाएगा, लेकिन जीने-जाने वाली परंपरा नहीं रहेगा।
आधुनिक जीवन में अनुष्ठानों का स्वरूप बदल चुका है।
प्रश्न यह है कि क्या ये बदलाव अनुष्ठान की शक्ति कम करते हैं या वैदिक धर्म की लचीलापन और अनुकूलन क्षमता को दर्शाते हैं?
वास्तव में, वैदिक परंपरा हमेशा बदलती रही है - मौखिक वेद से लिखित ग्रंथों तक, मंदिर से घर के पूजन तक। यही अनुकूलन क्षमता इसे हजारों वर्षों तक जीवित रखे हुए है।
इतिहास में कई सुधार आंदोलनों ने अनुष्ठानों को कम करने का प्रयास किया।
फिर भी ये धारा मुख्यधारा वैदिक धर्म को पूरी तरह प्रतिस्थापित नहीं कर सकीं। इससे स्पष्ट है कि अनुष्ठान इसकी गहरी जड़ों का हिस्सा हैं।
तो क्या वैदिक धर्म बिना अनुष्ठान के रह सकता है? इसका उत्तर द्वैध है।
सच्चा साधक वही है जो अनुष्ठान को अंधविश्वास नहीं बल्कि समझ के साथ करे और साथ ही आत्मचिंतन और ध्यान में भी संलग्न रहे।
तेज रफ्तार जीवन में अनुष्ठान हमें ठहराव, लय और जुड़ाव देते हैं। वे हमें स्मरण कराते हैं कि हम केवल परंपरा निभा नहीं रहे, बल्कि शाश्वत चक्र का हिस्सा बन रहे हैं।
जब भी दीप जलाएँ, मंत्र पढ़ें या प्रार्थना में आँखें मूँदें, स्वयं से पूछें - क्या आप केवल परंपरा निभा रहे हैं या वास्तव में कालातीत सत्य से जुड़ रहे हैं?
1. क्या वैदिक धर्म में केवल अनुष्ठान से ही मोक्ष संभव है?
नहीं, शास्त्र बताते हैं कि मोक्ष आत्म-साक्षात्कार से मिलता है, केवल अनुष्ठानों से नहीं।
2. क्या अनुष्ठान पूरी तरह त्याग देना सही है?
नहीं, वे सांस्कृतिक पहचान और समाज को जोड़े रखने में महत्वपूर्ण हैं।
3. आधुनिक युग में ऑनलाइन पूजा मान्य है क्या?
परंपरा बदल सकती है, लेकिन भाव और श्रद्धा ही मुख्य तत्व हैं।
4. किन संतों ने अनुष्ठानों की आलोचना की थी?
कबीर, गुरु नानक और विवेकानंद जैसे संतों ने कर्मकांड की जगह भक्ति और ज्ञान पर बल दिया।
5. वैदिक धर्म में अनुष्ठानों का असली उद्देश्य क्या है?
व्यक्ति को अनुशासन, समाज को एकता और जीवन को ब्रह्मांडीय नियम से जोड़ना।
अनुभव: 32
इनसे पूछें: जीवन, करियर, स्वास्थ्य
इनके क्लाइंट: छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश
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